गुरुवार, नवंबर 07, 2013

बाजीराव-मस्तानी के अमर प्रेम का गवाह

लेख: कौशलेन्द्र प्रताप यादव
कमल-कुमुदिनियों से सुशोभित मीलों तक फैली बेलाताल झील के किनारे खडे जैतपुर किले के भग्नावशेष आज भी पेशवा बाजीराव और मस्तानी के प्रेम की कहानी बयां करते हैं। ऋषि जयंत के नाम पर स्थापित जैतपुर ने चंदेलों से लेकर अंग्रेजों तक अनेक उतार-चढाव देखे हैं।
जैतपुर का इतिहास उस समय अचानक मोड लेता है जब इलाहाबाद के मुगल सुबेदार मुहम्मद खां बंगश ने 1728 ई. में जैतपुर पर आक्रमण किया और जगतराज को किले में बंदी बना लिया। राजा छत्रसाल उस समय वृद्ध हो चले थे। मुगल सेना की अपराजेय स्थिति को देखकर उन्होंने एक ओर तो अपने बडे पुत्र हृदयशाह, जो उस समय अपने अनुज जगतराज से नाराज होकर पूरे घटनाक्रम के मूकदर्शक मात्र बने थे, को पत्र लिखा तो दूसरी ओर उन्होंने मराठा पेशवा बाजीराव से सहायता की विनती भी की।
राजा छत्रसाल का पत्र पाते ही पेशवा अपनी घुडसवार सेना के साथ जैतपुर आते हैं और एक रक्तरंजित युद्ध में मुहम्मद खां बंगश पराजित होता है और उसका पुत्र कयूम खान जंग में काम आता है। उसकी कब्र मौदहा में आज भी विद्यमान है।
जैतपुर के युद्ध में पेशवा ने एक महिला को भी लडते हुए देखा और उसके कद्रदान हो गए। पेशवा ने छत्रसाल से उस महिला योद्धा की मांग की। यह योद्धा मस्तानी थी, जो छत्रसाल की पुत्री थी। डा. गायत्री नाथ पंत के अनुसार छत्रसाल ने मध्य एशिया के जहानत खां की एक दरबारी महिला से विवाह किया था, मस्तानी उसी की पुत्री थी। मस्तानी प्रणामी संप्रदाय की अनुयायी थी, जिसके संस्थापक प्राणनाथ के निर्देश पर इनके अनुयायी कृष्ण और पैगंबर मुहम्मद की पूजा एक साथ करते थे। छत्रसाल ने ड्योढी महल में एक समारोह में पेशवा और मस्तानी का विवाह कराकर उसे पूना विदा किया।
छत्रसाल की पुत्री मस्तानी जब ढेर सारे अरमान लिए पूना पहुंची तो पूना उसको वैसा नहीं मिला, जैसा उसने सोचा था। पेशवा की माता व छोटे भाई ने इस संबंध का पुरजोर विरोध किया। पेशवा ने मस्तानी का नाम नर्मदा रखा किंतु यह मान्य नहीं हुआ। पेशवा और मस्तानी के एक पुत्र हुआ जिसका नामकरण पेशवा ने कृष्ण किया किंतु पारिवारिक सदस्यों के विरोध के कारण कृष्ण का रूपांतरण भामशेर बहादुर किया गया। रघुनाथ राव के यज्ञोपवीत संस्कार और सदाशिवराव के विवाह संस्कार के अवसर पर उच्चकुलीन ब्राह्मणों ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिस संस्कार में बाजीराव जैसा दूषित और पथभ्रष्ट व्यक्ति उपस्थित हो वहां वे अपमानित नहीं होना चाहते। इसी प्रकार एक दूसरे अवसर पर जब बाजीराव शाहू जी से भेंट करने के लिए उनके दरबार में गए तो मस्तानी उनके साथ थी, जिसके कारण शाहू जी ने उनसे मिलने से इंकार ही नहीं किया बल्कि मस्तानी की उपस्थिति पर असंतोष भी व्यक्त किया।
बाजीराव-मस्तानी का प्रेम इतिहास की चर्चित प्रेम कहानियों में है। पेशवा ने विजातीय होते हुए भी मस्तानी को अपनी अन्य पत्नियों की अपेक्षा बेपनाह मुहब्बत दी। पूना में उसके लिए एक अलग महल बनवाया। मस्तानी के लगातार संपर्क में रहने के कारण पेशवा मांस-मदिरा का भी सेवन करने लगे। पेशवा खुद ब्राह्मण थे और उनके दरबार में jज्यादातर सरदार यादव थे, क्योंकि शिवाजी की मां जीजाबाई यदुवंशी थीं और उसी समय से मराठा दरबार में यदुवंशियों की मान्यता स्थापित थी। दोनों जातियों में मांस-मदिरा को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। एक दिन पेशवा के भाई चिमनाजी अप्पा और पुत्र बालाजी ने मस्तानी को भनिवारा महल के एक कमरे में नजरबंद कर दिया, जिसे छुडाने का विफल प्रयास बाजीराव द्वारा किया गया।
मस्तानी की याद पेशवा को इतना परेशान करती कि वो पूना छोडकर पारास में रहने लगे। मस्तानी के वियोग में पेशवा अधिक दिनों तक जीवित न रहे और 1740 में पेशवा मस्तानी की आह लिए चल बसे। पेशवा के मरने पर मस्तानी ने चिता में सती होकर अपने प्रेम का इजहार किया। ढाउ-पाउल में मस्तानी का सती स्मारक है।
बाजीराव-मस्तानी से एक पुत्र भामशेर बहादुर हुए जिन्हें बांदा की रियासत मिली और इनकी संतति नवाब बांदा कहलाई। भामशेर बहादुर सन 1761 में पानीपत के युद्ध में अहमद शाह अब्दाली के विरुद्ध मराठों की ओर से लडते हुए मारे गए। इनकी कब्र भरतपुर में आज भी विद्यमान है जो उस समय जाटों के अफलातून सूरजमल की रियासत थी। भामशेर बहादुर द्वितीय, जुल्फिकार अली बहादुर और अली बहादुर द्वितीय इस वंश के प्रमुख नवाब हुए। भामशेर बहादुर द्वितीय मराठा समाज में पले बढे थे। उन्होंने बांदा में एक रंगमहल बनवाया जो कंकर महल के नाम से जाना जाना जाता है। उन्होंने दूर-दूर से शास्त्रीय गायकी के उस्तादों को बुलाकर बांदा में आबाद किया। उस मुहल्ले का नाम कलावंतपुरा था जो आजकल कलामतपुरा हो गया है।
बांदा की जामा मस्जिद, जो दिल्ली की जामा मस्जिद की तर्ज पर बनी है, का निर्माण जुल्फिकार अली बहादुर ने कराया। मिर्जा गालिब इसी नवाब को अपना रिश्तेदार बताते हैं। अपनी मुफलिसी के वक्त गालिब बांदा आए और नवाब ने सेठ अमीकरण मेहता से उन्हें 2,000 रुपये कर्ज अपनी जमानत पर दिलवाया। इसी परंपरा में नवाब अली बहादुर द्वितीय हुए जिन्होंने 1857 में अंग्रेजों से भयंकर युद्ध किया। रानी झांसी अली बहादुर को अपना भाई मानती थीं और उनके संदेश पर अली बहादुर उनके साथ लडने कालपी गए। 1857 में अली बहादुर ने बांदा को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।
1857 के गदर में बांदा पहली रियासत थी जिसने अपनी आजादी का ऐलान किया। कालांतर में विटलॉक ने यहां कब्जा किया और भूरागढ के किले में लगभग 80 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई। नवाब बांदा को इंदौर निर्वासित कर दिया गया। इसके बाद बाजीराव-मस्तानी के वंशज इंदौर में ही रहे। 1849 में बाजीराव-मस्तानी के प्रेम का अमूक गवाह जैतपुर डलहौजी की हडप नीति का शिकार बना।
जैतपुर पर्यटकों और इतिहासकारों के लिए एक खूबसूरत जगह है। बेलाताल नाम की झील बारिश के दिनों में 14 मील तक फैल जाती है। जाडे में रूस से आए साइबेरियाई पक्षी इसी झील में अपना बसेरा बनाते हैं। सरकारी डाकबंगले से इस झील के कमल और पक्षियों को निहारना बेहद सुखद है। जैतपुर से पर्यटक पांडव नगरी पनवाडी और बुंदेलखंड का कश्मीर चरखारी देख सकते हैं जो यहां से कुछ ही दूरी पर है।

बादलों का देश चेरापूंजी

लेख: उर्मि कृष्ण
हम उस रास्ते पर दौड रहे थे जिसकी कल्पना से भी रोमांच हो जाता था। छोटी बच्ची थी तब किताबों में पढा था सबसे अधिक वर्षा वाला स्थान। वर्ष में अस्सी इंच बारिश? मैं तो अपने जन्म स्थान हरदा और इंदौर की वर्षा से हादसे में आ जाती थी। पांच-छह साल की बच्ची के पैर झट ही घुटनों तक पानी में डूब जाते थे। इंदौर की बारिश दस-दस दिन लगातार चलती थी। घर के चारों ओर नदी का सा नजारा खडा हो जाता। शुरुआती बारिश में तो भीगना, खेलना, दौडना खूब भाता लेकिन बाद में भीगते हुए स्कूल जाना बडा दु:खदाई लगता। स्कूल से आना तो अच्छा लगता, किंतु जाते समय मन ही मन मनौती करती कि खूब तेज हो जाए बारिश और छुट्टी हो जाए स्कूल की। उस समय चेरापूंजी का नाम सुनना बडा सुखद लगता जहां वर्षा थमती ही नहीं।
आज सचमुच चेरापूंजी के नोहकलिकाई झरने को देखते हुए मैं बचपन के उन दिनों में खो जाती हूं जब कल्पना में चेरापूंजी देखा करती थी। उस समय मैने कभी नहीं सोचा था कि मैं कभी चेरापूंजी पहुंच जाऊंगी। नदी भी अच्छी लगती थी, बारिश की फुहारें भी अच्छी लगती थी। अब भी लगती है, किंतु तेज वर्षा से घबराती थी।
जिंदगी की कितनी ही वर्षा ऋतुएं बीतने के बाद आज संयोग बना चेरापूंजी आने का। असल में जब हमने अपने कहानी-लेखन महाविद्यालय का शिविर शिलांग में रखना तय किया तब चेरापूंजी का कार्यक्रम नहीं था। पर्यटन के लिए शिलांग के आसपास का भ्रमण ही था। शिलांग पहुंचकर जब पता चला कि चेरापूंजी यहां से मात्र 56 किमी. है और एक दिन में जाकर आ सकते हैं तब शिविर में आए सारे सदस्य प्रसन्नता से भर चेरापूंजी देखने के लिए अति उत्सुक हो उठे।
सुबह आठ बजे शिलांग से हमारा दल विकेश, अरुण, विजया, रीतू, विजय, अकेला भाई, शशि, पुष्पा, माया, हरि, प्रसिद्ध लेखक प्रबोध कुमार गोविल, गंभीर पालनी, प्रजापति चरणदास आदि एक सूमो और एक कार में रवाना हुए। प्रसन्नता से सबकी बांछें खिली थीं। जैसे कोई किला फतह करने जा रहे हों। छोटी सी बात पर भी ठहाके लग रहे थे। बिना जरूरत भी एक-दूसरे को छेड रहे थे। न जाने कहां खो गया था उम्र का अंतर। गंभीर सिंह जी की गंभीर मुद्रा से सब थोडा आतंकित होते और फिर ठहाकों में खो जाते। पिकनिक मूड में गंभीरता और गुस्सा- दोनों ही नहीं सुहाता। जी तो करता है ऐसे लोगों को यहीं कहीं रास्ते में छोड जाएं और सचमुच जब विकेश का मनोबल डिगने लगा तो हमने उन्हें राह में छोड दिया रेडियो टावर की बिल्डिंग में। वापसी में उन्हें साथ लेना ही पडा।
शिलांग से चेरापूंजी की चढाई अधिक नहीं है। हल्की चढाई, दोनों ओर पहाड। दो पहाडों के बीच की घाटियों में भरे थे अनानास के पेड और अनजानी वनस्पतियां। अनेक तरह की फर्न, सुंदर पत्तियों वाले इन पौधों को घर ले जाने का मन ललक उठा। पहाड बद्री-केदार के पहाडों जैसे ऊंचे नहीं थे। डरावने भी नहीं। इन्हीं में फूट रहे थे अनेकों झरने। दूर से उनकी पतली धाराएं दिख रही थीं। खूब थे चीड और एरोकेरिया के वृक्ष। देवदार कहीं नहीं था। इस पूर्वी हिमालय में देवदार कहीं नहीं दिखा। यह देवतरू तो बस उत्तर हिमालय की ऊंचाइयों में रहता है। मैं इसे यहां कहां ढूंढ रही थी।
चेरापूंजी की ऊंचाई 1300 मीटर है। यह घाटी कई तरह की वनस्पतियों से समृद्ध है। कई तरह की फर्न, कई स्थानीय फल, चेसनट, अनानास बहुतायत से होते हैं। यहां कुछ विशेष फूल देखने को मिले। नागफन और ढक्कन वाले फूल तो बहुत ही विशेष थे। सर्प की तरह लम्बी जिह्वा बाहर फेंकता यह फूल यहां की वनस्पतियों में विशेष आकर्षण का केंद्र है। दूसरा ढक्कन वाला फूल जिसमें जैसे ही कोई कीट घुसता है वह ऊपर से अपना ढक्कन गिरा देता है। इन फूलों के कपों में कई कीडे बन्द थे।
चेरापूंजी का सबसे आकर्षक स्थान है नोहकलिकाई झरना। हजारों फीट ऊपर से गिरता यह दूधिया झरना अपने में एक मार्मिक कथा समेटे हुए है। लिकाई नाम की एक स्त्री जब एक दिन अपने काम पर से लौटी तो उसने अपने बच्चे के लिए पति से पूछताछ की। पति ने कहा कि बच्चे को काट कर खाने के लिए पका लिया है। सुनते ही लिकाई सदमे से भर गई और झरने में कूद पडी। तभी से झरने का नाम नोहकलिकाई पडा। खटाखट कैमरे चमक उठे थे और कूदता, गिरता झरना छोटी सी फिल्मों में कैद हो रहा था।
चेरापूंजी तो सुंदर झरनों और विशिष्ट वनस्पतियों से भरा हुआ स्थान है। विश्व में सबसे अधिक बारिश के कारण पहचाना जाने वाला यह स्थान समुद्र तट से 1300 मीटर की ऊंचाई पर है। अधिक वर्षा के कारण ही अनेक झरनों नदियों और वनस्पतियों ने इसे सजाया है। यहां की खासी जाति का मुख्य व्यवसाय इन्हीं जंगलों और नदियों की उपज है। मांस, मछली और वन की उपज नटस, अनानास बांस, अन्य जडी-बूटियां इनकी जीविका हैं। ये लोग सौंदर्य प्रेमी होते हैं। कलात्मक कपडों, शालों अन्य सजावटी वस्तुओं का निर्माण करते हैं, व्यवसाय भी करते। इनके घर सुंदर बने होते हैं और उन्हें ये सजा संवारकर रखते हैं। पक्षी तितली अन्य कीट पतंग इनके सजावटी सामानों में मिल जाते हें। अपनी धरती और रीति-रिवाजों के प्रति ये बहुत आस्थावान हैं। चेरापूंजी के पास ही यहां सबसे पुराना संस्थान रामकृष्ण मिशन चल रहा है। यहां के विद्यार्थी हिन्दी, अंग्रेजी, खासी, बंगला भाषाओं के ज्ञाता हैं। यहां शाल, स्वेटर कलात्मक वस्तुएं, जडी-बूटियों से दवा निर्माण आदि कार्य कुशलता से हो रहे हैं। यहां का पुस्तकालय ज्ञान पिपासुओं के लिए अच्छी खुराक है। पूरा संस्थान अपनी भव्यता, शांति और सफाई के लिए दर्शनीय है।
मौसमाई फाल्स और मौसमाई गुफाएं देखना बहुत ही रोमांचक हैं। प्रकृति की अपनी विशिष्ट रचना है ये गुफाएं। पत्थरों ने गुफा के अंदर कई आकार लिए हैं। कहीं हाथी, घोडा, हिरण तो कहीं किसी फूल पक्षी की आकृति तो कहीं दृष्टि बांध लेती है स्वनिर्मित मूर्तियां। कहीं सहस्त्राफन सर्प बना दिखता है तो कहीं शिवलिंग। गुफा में वैसे घुटनों तक पानी भरा होता है। नवंबर माह में यह सूखी थी, कहीं-कहीं पानी था। पत्थरों की ऊंची-नीची, चिकनी और तीखी, कहीं सकरी और कहीं चौडी आकृतियों पर चलना, चढना हमें किसी और तिलस्मी दुनिया का ज्ञान करा रहा था। यहां सरकार ने अब प्रकाश की अच्छी व्यवस्था कर दी है। यात्री यहां हमारे सिवाय कोई नहीं था।
यह स्थान यात्रियों के लिए रहस्य रोमांच साहस और सौंदर्य से भरा हुआ है। दूर एक हजार मीटर ऊंचाई से गिरता झरना, घने वृक्षों से घिरा जंगल, बादलों के पास बसा बांग्लादेश यहां से दिखाई देता है। यहां सरकार ने सुंदर बाग का निर्माण कर दिया है। यात्रियों के बैठने, घूमने और देखने की सुविधा है। इसी बाग में कई तरह के फूल फर्न और कीट पतंगों से हमारी पहचान होती है। नागफन और कीडा पकड कीट खाऊ फूल हम यहां देखते हैं। कई तरह के आकार और रंगों वाली पत्तियों को हम देर तक निहारते रहते हैं। हमारे मन में उतर आता है बालक सा भोलापन जिज्ञासा। बाग में पडे झूलों पर बैठ हम गीत गा उठते हैं, खिलखिलाते हैं। फिर दौड पडते है जैसे बचपन लौट आया है जैसे।
इस पूर्वी प्रदेश में शाम जल्दी होती है। हम सब लौट पड हैं। रास्ते में दिखते हैं शिलाओं के बडे प्रतीक जो यहां के मूल निवासियों के पूर्वजों की यादगार हैं। एक शिला यहां के मुखिया की है उसके सिर पर ताज रखा है। नश्वर को अमर करने के ये रिवाज सारे विश्व में कई तरह से फैले हैं। गाऊटी, उमगोट, नदियों, मोसमाई, नोहकलिकाई और कई तरह के झरनों से घिरे चेरापूंजी के मुख्य बाजार से हम लौट रहें है। बच्चे हमें हाथ हिलाकर विदा दे रहें हैं। सबसे अधिक बारिश वाले स्थान से हम सूखे लौट आए हैं। नवंबर में यहां सूखा रहता है, बादल घिरते हैं पर धूप भी खिलती है।

देवीधुरा : पत्थरों से बरसती हैं नेमतें

लेख: रविशंकर जुगराल
कुछ परम्पराओं को बदलने की कोशिशें भी एक परम्परा बन गई हैं। कुमाऊं में देवीधुरा में हर साल रक्षाबन्धन पर होने वाला पत्थरों का युद्ध बग्वाल भी ऐसी ही मिसाल है, जो अब सैलानियों को भी आकर्षित करती है।
उत्तराखंड की संस्कृति यहां के लोक पर्व और मेलों में स्पंदित होती है। यूं तो राज्य में जगह-जगह साल भर मेलों का आयोजन चलता रहता है, लेकिन कुछ मेले ऐसे हैं जो अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए हैं। कुमांऊ के देवीधुरा नामक स्थान पर लगने वाला बगवाल मेला इन्हीं में एक है, जो हर साल रक्षा बंधन के दिन मनाया जाता है। इस अनूठे मेले की खास विशेषता ये है कि इसमें पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध होता है, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग जुटते हैं। चंपावत जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर अल्मोड़ा-लोहाघाट मार्ग पर बसा देवीधुरा समुद्रतल से करीब 2500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
यहीं पर विशाल शिलाखंडों के मध्य प्राकृतिक रूप से बनी गुफा में मां बराही देवी का मंदिर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए संकरी गुफा है। मंदिर के पास ही खोलीखांड दुबाचौड़ का लंबा-चौड़ा मैदान है। यहां पर रक्षा बंधन के दिन बगवाल यानी पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध होता है। यह खेल लमगडिया, चम्याल, गहरवाल और बालिग खापों के बीच खेला जाता है। इन चारों खापों से जुड़े आसपास के गांव के लोग इसमें हिस्सा लेते हैं।
पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल के पीछे कई लोकमान्यताएं जुड़ी हैं। इन्हीं के अनुसार प्राचीन काल में मां बराही देवी को प्रसन्न करने के लिए यहां नरबलि देने की प्रथा थी। कहा जाता है कि हर साल इन चारों खापों के परिवारों में से किसी एक सदस्य की बलि दी जाती थी। एक बार एक खाप की बूढ़ी महिला के पोते की बारी आई लेकिन महिला ने अपने पोते की बलि देने से इंकार कर दिया। कहीं देवी कुपित न हो जाए, यह सोचकर गांव वालों ने निर्णय लिया कि बगवाल खेलकर यानी पत्थरों का रोमांचकारी खेल खेलकर एक मनुष्य शरीर के बराबर रक्त बहाया जाए। तभी से नरबलि के प्रतीकात्मक विरोध स्वरूप इस परंपरा को जीवित रखते हुए हर साल रक्षाबंधन के दिन चारों खापों के लोग यहां ढोल नगाड़ों के साथ पहुंचते हैं और पत्थरों के रोमांचकारी खेल को खेलते हैं।
चारों खापों के लड़ाके युद्ध के मैदान खोलीखांड और दुबाचौड़ के मैदान में परंपरागत युद्ध पोशाक और छतोलियों को हाथ में लिए ढोल नगाड़ों के साथ मां बराही के मंदिर में पहुंचते हैं। सबसे पहले इन चारों खापों के योद्धाओं द्वारा मंदिर की परिक्रमा और पूजा-अर्चना की जाती है और फिर मंदिर के लंबे-चौड़े प्रांगण में युद्ध के लिए मोर्च पर डट जाते हैं। लमगडि़या और बालिग खाप के योद्धा दक्षिण दिशा में होते हैं और गहरवाल और चम्याल खाप के लड़ाके उत्तर दिशा में होते हैं। पुजारी के शंखनाद के साथ ही बगवाल शुरू हो जाती है और फिर शुरू होता है पत्थरों का रोमांचकारी युद्ध जिसमें लोगों की सांसें थम जाती हैं।
युद्ध के दौरान घायल लड़ाके पत्थरों की चोट को माता का प्रसाद मानते हैं। युद्ध के दौरान मैदान का दृश्य देखने लायक होता है। बांस की बनी छतोलियों से लड़ाके अपना बचाव करते हैं। इस चोट पर किसी तरह की मरहम पट्टी नहीं की जाती। जिस समय ये रोमांचकारी युद्ध होता रहता है, पुजारी मंदिर में बैठकर मां बराही की पूजा अर्चना करता रहता है। यकायक वह भाववश मैदान में पहुंच शंखनाद करता है और पुजारी के शंखनाद के साथ ही पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल को रोक दिया जाता है। इसके बाद चारों खापों के योद्धा आपस में गले मिलते हैं। इससे पहले सुबह मंदिर में मां वराही की प्रतिमा को को चारों खाप के लोग नंदगृह ले जाते हैं, जहां पर मूर्तियों को दूध से नहलाया जाता है और नए परिधानों से सुसज्जित किया जाता है।
सामान्य दिनों में यह प्रतिमा तांबे के बक्से में विराजमान रहती है जिसके एक खाने में मां काली और एक खाने में मां सरस्वती की मू्र्ति भी रखी गई हैं। हर साल रक्षा बंधन के दिन पत्थरों के इस रोमांचकारी खेल को देखने के लिए हजारों की संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं। इनमें विदेशी पर्यटकों की तादाद भी होती है। यह मेला पर्यटन का स्वरूप लेता जा रहा है। अब मेले से पहले एक हफ्ते तक देवीधुरा में विभिन्न स्टाल आदि लगाए जाते हैं। रंगारंग कार्यक्रम चलते रहते हैं जिनमें उत्तराखंड की संस्कृ्ति के दर्शन देखने को मिलते हैं। यह सारा इलाका धार्मिक रूप से जितना प्रसिद्ध है, प्राकृतिक रूप से उतना ही सुंदर है। यही वजह है कि लोकपरंपराओं से जुड़े इस अनूठे मेले को देखने श्रद्धालु तो पहुंचते ही हैं, साथ ही साथ प्रकृति प्रेमी भी यहां आना नहीं भूलते।
कैसे पहुंचे
यहां पहुंचने के लिए आप बस या रेल मार्ग का सहारा ले सकते हैं। अगर आप रेल से आना चाहें तो देश के किसी भी कोने से आप टनकपुर या काठगोदाम पहुंच सकते हैं। टनकपुर और काठगोदाम सीधी रेल सेवा से जुडे़ हैं। उसके बाद इन दोनों स्थानों से देवीधुरा की दूरी तकरीबन 150 किलोमीटर है।

हणोगी माता

लेख: प्रेम एन. नाग
हिमाचल प्रदेश के अलग अलग शोभा वाले अनेक मन्दिरों में से एक है हणोगी माता मन्दिर। राष्ट्रीय राजमार्ग 21 पर मण्डी और कुल्लू के बीच बने पण्डोह बांध से कुछ आगे चलकर ब्यास नदी के दूसरी ओर यह एक पर्वत पर शोभायमान है जिसका सौन्दर्य देखते ही बनता है।
हणोगी नामक स्थान पर स्थित इस मन्दिर में देवी तीन रूपों में विद्यमान है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहां अभय राम गुरु रहा करते थे जो तान्त्रिक विद्या में निपुण थे। वह अपनी शक्तियों द्वारा तुंगाधार पर्वत श्रंखला से तुंगा माता को हणोगी में लाये। इस देवी को ‘तुंगाधार की जोगणी’ के नाम से भी जाना जाता है। हणोगी में काली माता का प्राचीन मन्दिर है जहां एक बडी गुफा है। तुंगा माता की पांच हजार वर्ष पुरानी पाषाण मूर्ति इस गुफा में आज भी विद्यमान है। कहा जाता है कि जब तक गुरुजी थे तब तक उन्होंने माता की पूजा अर्चना जारी रखी। उनके पश्चात देवी की पूजा करने वाला कोई भी न था। लिहाजा कई अनहोनी घटनाएं होती रहीं। कालान्तर में आरम्भ हुआ दुर्घटनाओं का सिलसिला थमा नहीं। छह-सात दशक पहले स्थानीय निवासियों ने इस बात को गम्भीरता से लिया और माना कि ऐसा देवी के प्रकोप के कारण हो रहा है। हणोगी के समीप ही एक पुरानी सडक थी, उस पर अक्सर रास्ता अवरुद्ध हो जाता था। इसी दौरान लोगों को कुछ दैविक चमत्कार दिखाई दिये और एक श्रद्धालु को स्वप्न में माता ने कहा कि यह मेरा स्थान है। फिर क्या था लोगों ने वहां एक वृक्ष को देवी शक्ति का प्रतीक मानकर पूजना आरम्भ कर दिया। यह वृक्ष आज भी ब्यास नदी के किनारे पानी में कुछ डूबा हुआ खडा है।
देवी के दृष्टान्त का क्रम यहीं नहीं टूटा, पुरानी सडक को टूटने से बचाने के लिये जो ठेकेदार दीवार बनाते थे, वह अगले दिन टूटी मिलती थी। अन्त में इस काम को कराने वाले ठेकेदार को माता ने स्वप्न में कहा कि यदि वह नदी के पार अर्थात हणोगी की ओर उनका मन्दिर बनवायेगा तो उसके सब काम सफल होंगे। श्रद्धालु ठेकेदार ने छोटा सा सरस्वती मन्दिर बनवाया।
हाईवे बन जाने के बाद फिर देवी ने कुछ भक्तों को हाईवे के किनारे पर पूजा स्थल बनाने की प्रेरणा दी। यहां भी एक छोटा सा मन्दिर बना जहां लक्ष्मी जी की मूर्ति है। दैवीय चमत्कारों को देखते हुए कुछ स्थानीय लोग और पीडब्ल्यूडी के अधिकारी आगे आये और काली माता के मूल स्थान पर मन्दिर बनाने का काम शुरू किया। आज हणोगी में देवी तीन रूपों में विद्यमान है- तामसिक काली, राजसिक लक्ष्मी और सात्विक सरस्वती।
हणोगी माता मन्दिर न्यास नवरात्रों में अनेक कार्यक्रमों का आयोजन करता है। दोनों समय लंगर, औषधालय, गरीब कन्याओं का विवाह, मोटर से ब्यास नदी पार कराने की सुविधा, बच्चों को पुस्तकें और कपडे, गौ सदन संचालन, सरायों की सुविधा और संस्कृत महाविद्यालय का संचालन आदि कार्य मन्दिर न्यास द्वारा किये जाते हैं।