गुरुवार, मई 24, 2012

सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान- हरियाणा का एकमात्र

दिल्ली जैसे शहर की धक्कामुक्की और उबाऊ दिनचर्या से यदि आप उकता गये हैं, तो आप राजधानी से एकदम करीब सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान का रुख कर सकते हैं। अरावली पर्वत श्रंखलाओं की गोद में स्थित यह राष्ट्रीय उद्यान दिल्ली की सीमा से लगे हरियाणा राज्य के गुडगांव जिले में स्थित है।
करीब 1.47 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस राष्ट्रीय उद्यान के मध्य में पहुंचकर एक खूबसूरत झील के दर्शन होते हैं। सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान की धडकन और वन्य प्राणियों के लिये जीवनदायिनी है यह झील। मछलियों की मौजूदगी और दलदली वनस्पति की बहुतायत के चलते प्रवासी पंछी सर्दियां शुरू होते ही यहां आकर डेरा डाल देते हैं।
सुल्तानपुर हरियाणा का एकमात्र राष्ट्रीय उद्यान है। सुप्रसिद्ध विहंगप्रेमी स्वर्गीय सालिम अली और पीटर जैक्सन को इस जगह से बेहद लगाव था।
कब जायें: सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान के भ्रमण के लिये अक्टूबर से फरवरी के महीने सर्वोत्तम हैं।
कैसे जायें: निकटतम हवाई अड्डा पालम सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान से सिर्फ 35 किलोमीटर के फासले पर स्थित है। निकटतम रेलवे स्टेशन गुडगांव है और सडक मार्ग से आने वाले यात्री दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पकडकर सीधे सुल्तानपुर पहुंच सकते हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: गुडगांव 15 किलोमीटर, पालम 35 किलोमीटर, दिल्ली बस अड्डा 56 किलोमीटर, जयपुर 300 किलोमीटर, चण्डीगढ 384 किलोमीटर।
कहां रहें: सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के ठहरने के लिये कुटीर से लेकर वातानुकूलित कमरों तक की व्यवस्था है। पर्यटक चाहें तो दिनभर यहां भ्रमण करने के बाद शाम को दिल्ली भी जा सकते हैं।
क्या देखे: सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान उन पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करता है जिन्हें पक्षियों से लगाव है। यह स्थाई और प्रवासी दोनों ही प्रकार के पक्षियों का घर है। यहां सारस, क्रेन, स्पॉट बिल, गीज और बत्तख सुगमतापूर्वक देखे जा सकते हैं। पेडों पर रहने वाले पक्षियों- बुलबुल, नीलकण्ठ, फाख्ता और मैना के शोरगुल के बीच अगर नृत्यरत मोर के दर्शन हो जायें तो यात्रा सफल हो जाती है।
पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान में 100 से अधिक प्रजातियों के पक्षी देखे जा सकते हैं।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

बुधवार, मई 23, 2012

कान्हा नेशनल पार्क- कुदरत का करिश्मा

मध्य प्रदेश के मण्डला और बालाघाट जिलों में मैकल पर्वत श्रंखलाओं की गोद में स्थित कान्हा देश के सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय उद्यानों में एक है। कान्हा महज एक पर्यटन केन्द्र ही नहीं है, बल्कि भारतीय वन्य जीवन के प्रबंधन और संरक्षण की सफलता का प्रतीक भी है। हृष्ट-पुष्ट जंगली जानवरों के लिये पूरी दुनिया में मशहूर कान्हा में प्रतिवर्ष एक लाख से अधिक सैलानी घूमने आते हैं।
कान्हा मध्य प्रदेश का पहला राष्ट्रीय उद्यान है। वन्य जन्तुओं की सघनता की दृष्टि से यह उद्यान काफी समृद्ध है। 940 वर्ग किलोमीटर दायरे में सदाबहार साल वनों से आच्छादित कान्हा एक अदभुत वन्य प्रान्तर है। प्रबंधन की दृष्टि से यह कान्हा, किसली, मुक्की, सुपरवार और मैसानघाट नामक पांच वन परिक्षेत्रों (रेंज) में बंटा हुआ है। पार्क में पर्यटकों के प्रवेश के लिये खटिया (किसली रेंज) और मुक्की में दो प्रवेश द्वार (बैरियर) हैं। यहां से पार्क के प्रमुख पर्यटन क्षेत्र कान्हा की दूरी क्रमशः 10 और 30 किलोमीटर है।
अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिये दुनियाभर में मशहूर इस राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना सन 1955 में हुई और सन 1974 में इसे प्रोजेक्ट टाइगर के अधीन ले लिया गया।
कब जायें: कान्हा राष्ट्रीय उद्यान 1 जुलाई से 31 अक्टूबर के मध्य वर्षा के दौरान पर्यटकों के लिये बन्द रहता है। यहां भ्रमण के लिये नवम्बर से जून तक कभी भी जाया जा सकता है। सर्दियों में ऊनी और गर्मियों में हल्के सूती वस्त्रों की जरुरत पडती है।
कैसे जायें: जबलपुर निकततम हवाई अड्डा है। रेल से आने वाले मुसाफिरों को भी कान्हा आने के लिये जबलपुर रेलवे स्टेशन पर उतरना चाहिये। जबलपुर से कान्हा के लिये नियमित बस सेवा समेत सभी प्रकार की सडक परिवहन सुविधाएं उपलब्ध हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 980 किलोमीटर, मुम्बई 1305 किलोमीटर, नागपुर 290 किलोमीटर, भोपाल 540 किलोमीटर, जबलपुर 165 किलोमीटर।
कहां ठहरें: कान्हा आने वाले पर्यटकों के लिये आवास की स्तरीय सुविधाएं सुलभ हैं। भारतीय पर्यटन विकास निगम द्वारा संचालित सफारी लॉज में पर्यटकों के लिये वातानुकूलित आवास की सुविधा है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम का किसली स्थित यूथ हॉस्टल और टूरिस्ट बंगला मुक्की और टूरिस्ट हट खटिया में भी खाने-पीने और ठहरने की अच्छी व्यवस्था है।
क्या देखे: बाघ देखू पर्यटकों के लिये कान्हा स्वर्ग है। दरअसल कान्हा में बाघ दर्शन ने पर्यटन को काफी बढावा दिया है। कान्हा, किसली और मुक्की में वन विभाग के पालतू हाथी सुबह सवेरे पांच साढे पांच बजे ही घने जंगलों में बाघ की तलाश में निकल पडते हैं। वर्षों के अनुभव से महावत बाघ की खोज में माहिर हो गये हैं।
बाघ के पदचिन्ह, वन्य जन्तुओं की अलार्म काल, लंगूरों की हलचल और गिद्धों की मंडराहट के जरिये वे बाघ खोज लेते हैं। बाघ की खोज के बाद वायरलेस के जरिये सूचना भेज दी जाती है कि अमुक स्थान पर बाघ मिल गया है।
इस सन्देश के पश्चात बाघ देखू पर्यटक निर्धारित स्थल तक वाहन से पहुंचते हैं और वहां से हाथी पर सवार होकर बाघ देखने जाते हैं। आमतौर पर बाघ आदमी को देखते ही भाग जाते हैं, मगर कान्हा के बाघ कैमरे और दूरबीनों से लैस हाथी के हौदे पर सवार पर्यटकों को देखने के आदी हो चुके हैं।
बाघ के अतिरिक्त कान्हा में बारहसिंघा की एक दुर्लभ प्रजाति पंकमृग (सेर्वुस बांडेरी) भी पाई जाती है। सन 1970 में यहां इनकी संख्या 3000 से घटकर सिर्फ 66 रह गई थी। बाद में एक विशेष योजना के जरिये इनकी जनसंख्या वृद्धि के प्रयास किये गये जो काफी हद तक सफल रहे। बाघ और बारहसिंघा के अतिरिक्त यहां भालू, जंगली कुत्ते, काला हिरण, चीतल, काकड, नीलगाय, गौर, चौसिंगा, जंगली बिल्ली और सूअर भी पाये जाते हैं। इन वन्य प्राणियों को हाथी की सैर अथवा सफारी जीप के जरिये देखा जा सकता है।
वन्य प्राणियों के दर्शन के अतिरिक्त पर्यटकों को पार्क में स्थित ब्राह्मणी दादर भी जरूर जाना चाहिये। किसली से करीब 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस जगह से सूर्यास्त का मनोरम दृश्य दर्शकों को मुग्ध कर देता है।
कान्हा का इलाका आदिवासियों का गढ है। पर्यटक पार्क के निकटवर्ती भीलवानी, मुक्की, छपरी, सोनिया, असेली आदि वनग्रामों में जाकर यहां की प्रमुख बैगा जनजाति के लोगों से मिल सकते हैं। उनकी अनूठी जीवनशैली और परिवेश का पर्यवेक्षण निःसन्देह आपकी यात्रा की एक और स्मरणीय सौगात होगी।

लेख: अनिल डबराल: हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, मई 20, 2012

सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान- जंगल के रोमांच का नाम

सरिस्का आने के लिये आप जयपुर या अलवर से रेलगाडी से भी पहुंच सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 8 पर स्थित होने के कारण यहां सडक परिवहन से पहुंचना भी काफी सुगम है। दिल्ली से कार द्वारा यहां पहुंचने में सिर्फ चार घण्टे का समय लगता है और जयपुर से यहां दो घण्टे में पहुंच जाते हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 202 किलोमीटर, जयपुर 107 किलोमीटर, अलवर 34 किलोमीटर।
कहां ठहरें: सरिस्का की सैर के लिये एक दिन का समय काफी है। जयपुर से बस या टैक्सी से सुबह सरिस्का आकर उसी शाम वापस जयपुर पहुंचा जा सकता है। फिर भी यदि आप यहां ठहरना चाहें तो आवास के लिये सरिस्का में पर्याप्त सुविधाएं मौजूद हैं। सरिस्का पैलेस, राजस्थान स्टेट होटल, टूरिस्ट बंगला, टाइगर डीन बंगला और टूरिस्ट रेस्ट हाउस में ठहरने की अच्छी सुविधाएं हैं।
क्या देखें: बाघ सरिस्का का मुख्य आकर्षण है। सन 1988 में यहां 45 बाघ थे किन्तु अब (1995) में यह संख्या घटकर आधी हो गई है। अवैध शिकार, अवैध खनन और उससे उत्पन्न शोर-शराबे ने सरिस्का के बाघों पर प्रतिकूल असर डाला है। फिर भी यदि आप सौभाग्यशाली हैं तो सरिस्का की काली घाटी, राइका, काकवाडी, माला, पाण्डुपोल, उमरी और देबरी के जंगलों में वनराज के दर्शन हो सकते हैं।
सरिस्का का वन्य जीवन काफी विविधतापूर्ण है। बाघों के अलावा आप यहां काला हिरण, सांभर, चीतल, नीलगाय और चौसिंगा हिरणों के झुण्ड को कुलांचे भरते देख सकते हैं। जंगली सूअर, लंगूर, बन्दर, गीदड और लोमडी भी यहां काफी तादाद में मौजूद हैं। हजारों की संख्या में राष्ट्रीय पक्षी मोर, गरुड, उल्लू, कठफोडवा और किंगफिशर जैसी दर्जनों प्रजातियों के पक्षी भी यहां पर्यटकों की अगवानी के लिये सदैव तैयार मिलते हैं।
सरिस्का की हरियाली, ताल-तलैये और नुकीली चट्टानें भी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। सरिस्का जायें तो भीषण गर्मी और सूखे में भी हरे रहने वाले हिंगोट और रौहंज प्रजाति के पेडों की पहचान करना न भूलें।
राष्ट्रीय उद्यान में हनुमानजी का प्राचीन मन्दिर, मुगलकालीन काकवाडी का किला और अलवर नरेश जयसिंह द्वारा निर्मित (अब होटल) भी दर्शनीय हैं। जंगल में यहां-वहां आठवीं से दसवीं सदी के मध्य निर्मित हिन्दू और जैन मन्दिरों के अवशेष भी नजर आते हैं।
राष्ट्रीय उद्यान में सैर के लिये जालीदार जीपों की व्यवस्था है। इनमें बैठकर पर्यटक सरिस्का भ्रमण का आनन्द ले सकते हैं। सरिस्का में पर्यटकों की काफी भीडभाड रहती है। औसतन 250 वाहन प्रतिदिन राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करते हैं। सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान में पहले पर्यटकों को रात्रि में भी घुमाने की व्यवस्था थी लेकिन वन्य जन्तुओं की शान्ति में बाधा न पडे, इसलिये इसे बन्द कर दिया गया है। सूर्यास्त के बाद पर्यटकों को राष्ट्रीय उद्यान में घूमने की मनाही कर दी गई है। इसलिये सूर्यास्त से पहले ही उद्यान क्षेत्र से बाहर निकल आना चाहिये।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, मई 19, 2012

पेरियार राष्ट्रीय उद्यान- प्राकृतिक सौन्दर्य की अदभुत थाती

कुदरत ने केरल में मुक्तहस्त से अपना वैभव बिखेरा है। चप्पे-चप्पे पर बिखरी हरियाली, हरे-भरे वृक्षों से ढके पर्वत, नदियों और झीलों की यह धरती प्रकृति प्रेमियों के लिये स्वर्ग है। राज्य के एक चौथाई क्षेत्र में सदाबहार वन हैं, जहां जंगल की खुशनुमा दुनिया आबाद है। इस छोटे से प्रान्त में प्रकृति के सुन्दरतम स्वरूप की झलक पेरियार राष्ट्रीय उद्यान में देखने को मिलती है, वह अभिभूत हो उठता है इसके सौन्दर्य पर। सचमुच पेरियार दुनिया के उन राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है, जहां वन्य प्राणियों का भरा-पूरा साम्राज्य आपको रोमांचित कर देता है।
पश्चिमी घाट की खूबसूरत पहाडियों से घिरा पेरियार राष्ट्रीय उद्यान 777 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। पार्क के बीचोंबीच केरल की सबसे लम्बी पेरियार नदी पर एक कृत्रिम झील बनाई गई है। 26 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली इस झील के चारों ओर घने जंगल पसरे हुए हैं, जहां वन्य प्राणियों की आवाजें जंगल की निस्तब्धता को भंग करती हैं। सन 1973 में पेरियार को ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ क्षेत्र में शामिल किया गया। यह भारत के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र का अंतिम टाइगर रिजर्व है। नवीनतम गणना के अनुसार इस समय (1995) यहां 80 बाघ हैं।
कब जायें: मानसूनी बरसात के तीन महीनों को छोडकर पेरियार की यात्रा सितम्बर से मई के मध्य कभी भी की जा सकती है। गर्मी के मौसम में यहां अधिकतम तापमान 29 डिग्री तथा सर्दियों में न्यूनतम तापमान 15.5 डिग्री तक पहुंच जाता है। गर्मियों में सूती और सर्दियों में हल्के गरम कपडों की जरुरत पडती है।
कैसे जायें: पेरियार के लिये निकटतम हवाई अड्डा मदुरई है। आप चाहें तो तिरुअनन्तपुरम अथवा कोचीन की हवाई यात्रा से भी यहां पहुंच सकते हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन बोदिनायकानूर 67 किलोमीटर दूर है। वैसे मदुरई, कोचीन अथवा कोट्टायम तक रेल यात्रा के बाद सडक परिवहन के जरिये यहां पहुंचना अधिक सुविधाजनक है। पेरियार दक्षिण भारत के सभी प्रमुख नगरों से सडक मार्ग द्वारा जुडा हुआ है। कोचीन, तिरुअनन्तपुरम, कोट्टायम और मदुरई से यहां के लिये नियमित बस सेवाएं सुलभ हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: तिरुअनन्तपुरम 220 किलोमीटर, कोचीन 200 किलोमीटर, कोडाईकनाल 160 किलोमीटर, मदुरई 145 किलोमीटर, चेन्नई 639 किलोमीटर।
कहां ठहरें: पर्यटकों के लिये पेरियार में ठहरने के लिये आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न प्राइवेट होटल, लॉज और सरकारी विश्राम गृह मौजूद हैं। केरल पर्यटन विकास निगम (केटीडीसी) द्वारा संचालित अरण्य निवास और लेक पैलेस में वातानुकूलित कमरों की सुविधा है। केटीडीसी का पेरियार हाउस, लेक क्वीन, अम्बाडी, वन रानी, होली-डे होम, रानी लॉज आदि में भी ठहरने की समुचित व्यवस्था है। इनके अतिरिक्त वन विभाग की ओर से तन्निकुडी, मुल्लाकुडी और मानकावला में पर्यटकों के लिये रियायती दरों पर आवासीय सुविधाएं उपलब्ध हैं।
क्या देखें: जल-क्रीडा में मग्न हाथियों को देखना पेरियार का मुख्य आकर्षण है। यहां झील में तैरते हाथी अक्सर नजर आ जाते हैं। गर्मी के मौसम में अपने शरीर को ठण्डक पहुंचाने के लिये बाघ भी झील में कूद पडते हैं। यदि आप भाग्यशाली हैं तो ये दुर्लभ नजारा आपको भी नजर आ सकता है।
हाथी और बाघ के अलावा यहां गौर, चीतल, सांभर, बन्दर, जंगली सूअर और भालू भी पाये जाते हैं।
उद्यान की सैर के लिये हालांकि यहां प्रशिक्षित हाथियों की समुचित व्यवस्था है, लेकिन इस प्रचलित तरीके से घूमने की बजाय मोटर बोट से यहां भ्रमण का एक अलग ही मजा है। झील में नौकायन के दौरान तटवर्ती क्षेत्र में जंगली जानवर खासतौर पर हाथी, गौर और हिरणों के झुण्ड नजर आ जाते हैं। पेरियार में नौकायन के साथ साथ जंगली जानवरों को निहारने का अनुभव सचमुच अनूठा है। अरण्य निवास से प्रातः 7 बजे से सायं 3 बजे तक प्रत्येक दो घण्टे के अन्तराल में यहां सैर के लिये मोटर बोट की सुविधा उपलब्ध है।
पेरियार के इर्द-गिर्द कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें अरूवी क्रीक (16 किलोमीटर), क्रूसोई आइलैण्ड (19 किलोमीटर), मानकावला (10 किलोमीटर), मुल्लकुडी (29 किलोमीटर), पवारासू (19 किलोमीटर) और पेरियार बांध (12 किलोमीटर) आदि प्रमुख हैं। यदि आपके पास पर्याप्त समय हो तो उक्त स्थलों की सैर अवश्य करनी चाहिये। इन स्थलों की ओर जाते समय रास्ते में आपको नारियल, रबड, कॉफी और कालीमिर्च के बागान भी देखने को मिलेंगे।
कुल मिलाकर पेरियार की यात्रा एक अनूठा अनुभव है। हरियाली और पानी से घिरी इस जगह की शान ही निराली है।

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर, 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शुक्रवार, मई 18, 2012

दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान- कुदरत की खुशबू से सराबोर

हांगुल प्रजाति के हिरणों के लिये प्रसिद्ध दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान वन्य जन्तु प्रेमियों को हमेशा से आकर्षित करता रहा है। 141 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह राष्ट्रीय उद्यान दुर्लभ वन्य प्राणियों का डेरा है। दाचीगाम के शान्त और सुरम्य वातावरण में पहुंच कर पर्यटक प्रकृति और वन्य जन्तुओं के स्वच्छंद विहार को देखकर खो सा जाता है।
किसी जमाने में दाचीगाम शाही शिकारगाह के रूप में मशहूर था। इस वन्य क्षेत्र में कश्मीर नरेश और उनके विशिष्ट मेहमानों को ही शिकार करने की अनुमति थी। स्वतंत्रता के बाद इसे अभयारण्य का दर्जा दिया गया और सन 1987 में इसे राष्ट्रीय उद्यान में तब्दील कर दिया गया। जम्मू कश्मीर के चार राष्ट्रीय उद्यानों में से सबसे समृद्ध दाचीगाम अपनी जैव विविधता के कारण पूरी दुनिया में मशहूर है।
कब जायें: गर्मी का मौसम दाचीगाम की सैर के लिये अनुकूल रहता है, वैसे सर्दियों में भी पार्क के निचले हिस्सों में भ्रमण का आनन्द लिया जा सकता है। बहरहाल आतंकवादी गतिविधियों के कारण कश्मीर के इस मशहूर राष्ट्रीय उद्यान में प्रकृति एवं वन्य जन्तु प्रेमियों के लिये घूमना फिलहाल असुरक्षित है। सुधरे हुए हालात में आप यहां भ्रमण का कार्यक्रम बना सकते हैं।
कैसे जायें: दाचीगाम का निकटतम हवाई अड्डा श्रीनगर सिर्फ 20 किलोमीटर दूर है। श्रीनगर के लिये जम्मू, चण्डीगढ और दिल्ली से सीधी विमान सेवा उपलब्ध है।
निकटतम रेलवे स्टेशन जम्मूतवी है जहां देश के विभिन्न हिस्सों से रेलगाडियां पहुंचती हैं। यहां से दाचीगाम तक का सफर सडक मार्ग से बस या टैक्सी द्वारा तय किया जा सकता है।
प्रमुख नगरों से दूरी: श्रीनगर 20 किलोमीटर, जम्मू 320 किलोमीटर, चण्डीगढ 668 किलोमीटर, दिल्ली 906 किलोमीटर, मुम्बई 2284 किलोमीटर।
कहां ठहरें: दाचीगाम गेस्ट हाउस पार्क में आवास के लिये एक उपयुक्त जगह है। वैसे पर्यटक श्रीनगर में रहते हुए भी सुगमतापूर्वक दाचीगाम आ जा सकते हैं।
क्या देखें: दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान का मुख्य आकर्षण है- हांगुल। यूरोपियन रेड डियर प्रजाति का यह मासूम हिरण पूरी दुनिया में सिर्फ यहीं पाया जाता है। अत्यन्त दुर्लभ प्रजाति का यह मृग अपने अस्तित्व के लिये जूझ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय वन्य जीव संरक्षण संघ की रेड डाटा बुक में हांगुल का भी नाम दर्ज है।
विश्व वन्य जन्तु कोष के सहयोग से जम्मू कश्मीर सरकार ने हांगुलों के समुचित संरक्षण के लिये सन 1970 में प्रोजेक्ट हांगुल नाम की एक विशेष परियोजना शुरू की। यह परियोजना काफी हद तक सफल रही और सन 1988 में यहां हांगुलों की संख्या 170 से बढकर 818 तक पहुंच गई। किन्तु इसके बाद राज्य में लगातार बढती हुई आतंकवादी गतिविधियों के कारण हांगुलों का जमकर शिकार किया गया और सिर्फ चार वर्ष में ही सात सौ से अधिक हांगुल मार डाले गये। राज्य सरकार ने वर्ष 1992 में जब हांगुलों की गणना कराई तो इनकी संख्या सिर्फ सौ के करीब पाई गई। हांगुलों की घटती संख्या पर समस्त विश्व में चिन्ता व्यक्त की गई। सैन्य बल की मदद से वन्य जन्तु संरक्षकों ने हांगुलों की हर सम्भव सुरक्षा की, खासतौर पर तस्करों, घसियारों और लकडी काटने वालों पर विशेष नजर रखी गई। इस सुरक्षा व्यवस्था से दाचीगाम में हांगुलों के अवैध शिकार में कमी आई है। अब इनकी संख्या में बढोत्तरी हुई है। जनवरी 1995 की गणना में यहां 290 हांगुल पाये गये जिनमें 24 नर, 181 मादा और शेष बच्चे थे।
कश्मीरी बारहसिंगा के नाम से प्रसिद्ध हांगुल गर्मियों में ऊपरी दाचीगाम की 9000 से 16000 फीट ऊंची पहाडियों में चले जाते हैं, जहां वे पतझड तक निवास करते हैं। सर्दियों में हांगुल निचली पहाडियों में चले आते हैं और बसन्त तक यहीं रहते हैं। ऊपरी दाचीगाम, दारा, न्यूथेड, खामोह, ओवरो, तराल और सांगर गुलु क्षेत्र में इन्हें अपेक्षाकृत सुगमतापूर्वक देखा जा सकता है।
दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान के वन्य आकर्षणों में कस्तूरी मृग, तेंदुआ, काला और भूरा भालू, जंगली बिल्ली, मार्टिन मारमोट, लाल लोमडी और जंगली बकरी को देखना एक रोमांचकारी अनुभव है।

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

गुरुवार, मई 17, 2012

केबुल लामजाओ- दुनिया का एकमात्र तैरता हुआ राष्ट्रीय उद्यान

पूर्वोत्तर भारत का मनोरम पहाडी प्रान्त मणिपुर अपनी समृद्ध लोक-नृत्य परम्परा के लिये प्रसिद्ध है। यहां के मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति का एक-एक अंग नृत्य के आगोश में समाया रहता है। यहां तक कि मणिपुरी हिरण संगाई भी हरदम नाचने-कूदने में ही मशगूल रहता है। इसीलिये इसे डांसिंग डियर भी कहा जाता है। पूरी दुनिया में सिर्फ मणिपुर में पाये जाने वाले हिरण की इस दुर्लभ प्रजाति के संरक्षण के लिये केबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की गई। सिर्फ 40 वर्ग किलोमीटर दायरे में फैला यह राष्ट्रीय उद्यान अपनी किस्म का अनूठा उद्यान है। इसका एक बडा हिस्सा झील में तैरता रहता है। इसीलिये इसे फ्लोटिंग पार्क यानी कि तैरता हुआ उद्यान भी कहा जाता है।
कब जायें: केबुल लामजाओ की यात्रा के लिये अक्टूबर से अप्रैल का समय सबसे उपयुक्त है। इस मौसम में केबुल लामजाओ का सौन्दर्य और भी निखर उठता है।
कैसे जायें: केबुल लामजाओ जाने के उत्सुक पर्यटकों के लिये दिल्ली, कलकत्ता और गुवाहाटी से इम्फाल तक वायुसेवा उपलब्ध है। इम्फाल से दीमापुर का निकटतम रेलवे स्टेशन 125 किलोमीटर दूर है, किन्तु यात्रा की दृष्टि से यह सुविधाजनक नहीं है। आप गुवाहाटी तक ट्रेन से आने के बाद वहां से डीलक्स बस अथवा टैक्सी के जरिये इम्फाल पहुंच सकते हैं। सडक मार्ग से यात्रा के दौरान आपको नागालैण्ड से होकर गुजरना पडेगा, जिसके लिये ‘इनर लाइन परमिट’ बनाना आवश्यक है। ये परमिट नागालैण्ड सरकार के नई दिल्ली, कलकत्ता, गुवाहाटी, शिलांग और दीमापुर स्थित कार्यालयों से प्राप्त किये जा सकते हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 2611 किलोमीटर, कलकत्ता 1728 किलोमीटर, शिलांग 677 किलोमीटर, दीमापुर 160 किलोमीटर, इम्फाल 45 किलोमीटर।
कहां ठहरें: पर्यटकों के आवास के लिये यहां समुचित प्रबन्ध है और वन विभाग की ओर से दो विश्रामगृह बनाये गये हैं। इसके अतिरिक्त झील के बीच में बना सैन्द्रा टूरिस्ट सैंटर और मोईरांग में भी ठहरने की उत्तम व्यवस्था है। वैसे आप इम्फाल में रहकर भी सुगमतापूर्वक केबुल लामजाओ पहुंच सकते हैं। मणिपुर स्टेट ट्रांसपोर्ट के ओर से पर्यटकों के भ्रमण के लिये इम्फाल से यहां के लिये टूरिस्ट बस अथवा टैक्सी की भी व्यवस्था है।
क्या देखें: संगाई केबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान की बेशकीमती सौगात है। यह विश्व की सबसे संकटापन्न हिरण प्रजाति है। संगाई मणिपुरी नाम है। हिन्दी में इन्हें थामिन और अंग्रेजी में ब्रो एंटलर्ड डियर कहा जाता है। यह नाम इसलिये रखा गया क्योंकि इन हिरणों के सींग, भौहों के करीब से निकलते हैं। वैसे इनका वैज्ञानिक नाम है- सरकस एल्डी। बडी संख्या में मानव द्वारा आहार बनाये जाने के कारण संगाई हिरणों की संख्या निरन्तर घटती चली गई और 1951 में मणिपुर सरकार ने इनके विलुप्त होने की घोषणा कर दी किन्तु बाद में व्यापक खोज के बाद कुछ संगाई पाये गये और इन्हें बचाने के उद्देश्य से 1954 में केबुल लामजाओ अभयारण्य की स्थापना की गई।
अभयारण्य बनने के बावजूद भी केबुल लामजाओ में संगाई हिरणों के अवैध शिकार पर पूरी रोक नहीं लग पाई और 1977 की गणना में यहां सिर्फ 18 संगाई पाये गये। वन्य जन्तु प्रेमियों और अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ की चिन्ता पर केन्द्र सरकार ने 1977 में केबुल लामजाओ को नेशनल पार्क का दर्जा दे दिया। संगाई हिरणों के संरक्षण के लिये सभी संभव प्रयास किये गये और इसके लिये पर्याप्त संख्या में वन्य जन्तु रक्षकों की व्यवस्था की गई। इन सब का नतीजा यह हुआ कि 1986 में संगाई हिरणों की संख्या 18 से बढकर 95 हो गई। मार्च 1995 की नवीनतम गणना के अनुसार यहां 152 संगाई हैं जिनमें 58 नर, 69 मादा और 25 बच्चे हैं।
सचमुच केबुल लामजाओ और संगाई एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। दलदली क्षेत्र में धंसते हुए पांवों के बीच जब ये अपने शरीर को सन्तुलित करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे ये नाच रहे हों। केबुल लामजाओ के दलदली टापुओं पर जब संगाई हिरणों का झुण्ड नृत्य करता है तो ऐसा लगता है जैसे कृष्ण की गोपियां रास रचा रही हों।
निःसन्देह संगाई केबुल लामजाओ का मुख्य आकर्षण है लेकिन इनके अलावा भी यहां कुछ और वन्य प्राणी निवास करते हैं। इनमें 118 हॉग डियर और 100 जंगली सूअरों के साथ ही ऊदबिलाव, गिलहरी, लंगूर और दर्जनों किस्म के जलीय पक्षी शामिल हैं। यदि आप प्रवासी पक्षियों को देखने के उत्सुक हैं तो नवम्बर से मार्च का समय यहां विहंगावलोकन के लिये सबसे उपयुक्त है। इस मौसम में साइबेरियन पक्षियों के कलरव से केबुल लामजाओ की सूनी वादियां गूंज उठती हैं।
दुर्लभ पशु-पक्षियों के अलावा अपार जल-राशि, मछलियां, कछुए, हरी-भरी वनस्पतियां, हर मौसम में खिलने वाले लोक लेई, पुलैई व खोयमौम जैसे जंगली फूल और चारों ओर छोटी-बडी पहाडियों का अलौकिक सौन्दर्य केबुल लामजाओ को बेहद आकर्षक बना देता है।
केबुल लामजाओ दुनिया का एकमात्र तैरता हुआ राष्ट्रीय उद्यान है। इसका एक बडा हिस्सा लोकताक झील में छोटे छोटे टापुओं के रूप में तैरता रहता है। सडी घास-फूस से बने ये टापू कुदरत की अनूठी देन हैं। इनका पांचवां भाग जल के ऊपर तथा शेष भाग जल में समाया रहता है। वन्य प्राणियों के लिये ये उत्तम चरागाह भी हैं। इनमें 15 फीट ऊंची घास उग आती है, जिसे ‘फुमदी’ कहा जाता है।
जब कभी भी आप केबुल लामजाओ आयें, लोकताक झील के बीचोंबीच स्थित सैंद्रा कैफेटेरिया और निकटवर्ती मोईरांग कस्बे की सैर अवश्य कीजियेगा। यह ऐतिहासिक नगर ‘खुंबा-थोईबी’ की याद दिलाता है जिनके अमर प्रेम की कहानी मणिपुर के हर घर में कही सुनी जाती है।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

बुधवार, मई 16, 2012

कार्बेट नेशनल पार्क- भारत का पहला राष्ट्रीय उद्यान

उत्तराखण्ड हिमालय की तलहटी में स्थित कार्बेट नेशनल पार्क दुनिया के चर्चित राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है। कुदरत ने यहां जमकर अपना वैभव बिखेरा है। हरे-भरे वनों से आच्छादित पहाडियां, कल-कल बहते नदी नाले, चौकडी भरते हिरणों के झुण्ड, संगीत की तान छेडते पंछी, नदी तट पर किलोल भरते मगर, चिंघाडते हुए हाथियों के समूह और शेर की दहाड से गूंजते जंगल कार्बेट नेशनल पार्क की सैर को अविस्मरणीय बना देते हैं।
कार्बेट नेशनल पार्क को देश का पहला राष्ट्रीय उद्यान होने का गौरव प्राप्त है। इसकी स्थापना 8 अगस्त 1936 में हुई। ब्रिटिश शासन से पूर्व यह क्षेत्र पाताली दून के स्थानीय शासक के अधीन था। सन 1820 में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आने पर इमारती लकडी के लिये यहां वनों में भारी कटान किया गया। सन 1858 में मेजर रैमजे के प्रयासों से यहां के वनों को सुरक्षित रखने के लिये व्यवस्थित कदम उठाये गये। इसी क्रम में सन 1861-62 में ढिकाला और ‘बोक्साड के चौडों’ (घास के मैदान) में खेती, मवेशियों को चराने और लकडी कटान पर रोक लगा दी गई। सन 1868 में इन वनों की देखभाल का जिम्मा वन विभाग को सौंपा गया और 1879 में इसे आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया।
सन 1907 में सर माइकल कीन ने इन वनों को वन्य प्राणी अभयारण्य बनाने का प्रस्ताव रखा किन्तु सर जौन हिवेट ने इसे अस्वीकृत कर दिया। इसके पश्चात सन 1934 में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर मैल्कम हेली ने इसे अभयारण्य बनाने की योजना बनाई और इसी दौरान लन्दन में सम्पन्न संगोष्ठी में संयुक्त प्रान्त के पर्यवेक्षक स्टुवर्ड के प्रयासों से राष्ट्रीय उद्यान का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। इस तरह सन 1936 में राष्ट्रीय पार्क की स्थापना हुई और इसे हेली नेशनल पार्क के नाम से जाना जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद इसका नाम रामगंगा नेशनल पार्क रखा गया किन्तु 1955 में मशहूर अंग्रेज शिकारी जिम कार्बेट के निधन के पश्चात श्रद्धांजलि स्वरूप इस पार्क को कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान नाम दे दिया गया। जिम कार्बेट ने इस उद्यान के सीमांकन और इसे स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गढवाल और कुमाऊं की पहाडी जनता को नरभक्षी बाघों से मुक्ति दिलाने के कारण कार्बेट अपने जीवन काल में ही एक दन्त कथा बन चुके थे। जानवरों और पक्षियों की बोली समझने में उन्हें महारथ हासिल था। पगडंडियों पर दबी घास, पंजे और खुरों के निशान से ही वह यह पता लगा लेते थे कि कौन सा जानवर कब उस राह से गुजरा था। जंगल और शिकार की कई लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक जिम कार्बेट ने अपने आखेट जीवन में सिर्फ उन्हीं शेर या तेंदुओं का शिकार किया जो आदमखोर थे।
शुरू में यह उद्यान 323.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ था। वन्य जन्तुओं की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सन 1916 में इसमें 197.07 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र और मिलाया गया। इस तरह इसका क्षेत्रफल बढकर 520.82 वर्ग किलोमीटर हो गया।
पहली अप्रैल 1973 को प्रोजेक्ट टाइगर नामक महत्वाकांक्षी परियोजना का श्रीगणेश भी कार्बेट नेशनल पार्क से किया गया। सन 1991 में कार्बेट टाइगर रिजर्व का विस्तार किया गया। राष्ट्रीय उद्यान के अतिरिक्त इसमें सोना नदी वन्य जन्तु विहार और कालागढ आरक्षित वन क्षेत्र मिलाकर इसका क्षेत्रफल बढकर 1318.54 वर्ग किलोमीटर हो गया है। कार्बेट के इस नये स्वरूप की अधिकांश पर्यटकों को अभी जानकारी नहीं है। यही वजह है कि विस्तृत टाइगर रिजर्व में आवासीय सुविधाओं के बावजूद भी पर्यटन गतिविधियां नगण्य हैं।
कब जायें: कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान अथवा टाइगर रिजर्व की सैर 15 नवम्बर से 15 जून के बीच कभी भी की जा सकती है। नवम्बर से फरवरी के मध्य यहां तापमान 25 से 30 डिग्री, मार्च-अप्रैल में 35 से 40 तथा मई-जून में 44 डिग्री तक पहुंच जाता है। इनमें से आप अपना पसंदीदा मौसम चुन सकते हैं।
कैसे जायें: यह सभी प्रमुख शहरों से सडक मार्ग से जुडा हुआ है। दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से गाजियाबाद, हापुड होकर मुरादाबाद पहुंचने के बाद यहां से स्टेट हाइवे 41 को पकडकर काशीपुर, रामनगर होते हुए यहां पहुंच सकते हैं। लखनऊ से भी राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से सीतापुर, शाहजहांपुर, बरेली होते हुए मुरादाबाद और वहां से उपरोक्त मार्ग से कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान पहुंचा जा सकता है।
निकटतम रेलवे स्टेशन रामनगर है जो दिल्ली, लखनऊ और मुरादाबाद से जुडा हुआ है। वायु मार्ग से यहां पहुंचने के लिये फूलबाग (पन्तनगर) निकटतम हवाई अड्डा है जो 115 किलोमीटर दूर है।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 290 किलोमीटर, लखनऊ 503 किलोमीटर, देहरादून 203 किलोमीटर।
कहां ठहरें: कार्बेट नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व में पर्यटकों के आवास के लिये ब्रिटिशकालीन वन विश्राम गृहों से लेकर आधुनिक पर्यटक आवास गृह और स्विस कॉटेज टैंट आदि की समुचित व्यवस्था है। सुविधाओं की दृष्टि से ढिकाला पर्यटकों के ठहरने की पसन्दीदा जगह है। इसके अतिरिक्त लोहा चौड, गैरल, सर्पदुली, खिनानौली, कण्डा, यमुनाग्वाड, झिरना, बिजरानी, हल्दू पडाव, मुडिया पानी और रघुवाढाव समेत 23 वन विश्राम भवन भी हैं। पर्यटक इन स्थानों में आवासीय सुविधा पाने के लिये सम्बद्ध वन प्रभाग कार्यालयों से समुचित जानकारी व अग्रिम आरक्षण करवा सकते हैं।
क्या देखें: कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान की जैव विविधता देखते ही बनती है। साल, शीशम, खैर, ढाक, सेमल, बेर और कचनार आदि वृक्षों से जंगल भरा पडा है। रामगंगा के इर्द-गिर्ग फैले ‘चौडों’ और ‘मंझाडे’ (जल के मध्य स्थित जंगल) में सैंकडों की तादाद में हिरणों के झुण्ड सहजता से नजर आ जाते हैं। ये स्थान पाडा, सूअर और हाथियों की भी पसन्दीदा जगह हैं। पार्क की छोटी-छोटी पहाडियां घुडल और काकड को देखने के लिये उपयुक्त हैं।
यदि आप सौभाग्यशाली हैं तो घनी झाडियों के पीछे छिपे रहने वाले बाघ, तेंदुए और भालू भी आपको नजर आ जायेंगे। पार्क में मौजूद हजारों लंगूर और बंदरों की उछल-कूद बच्चों का खूब मनोरंजन करती है।
रामगंगा नदी में, विशेष रूप से गहरे कुण्डों में शर्मीले स्वभाव के घडियाल और तटों पर समाधि में लीन मगर पाये जाते हैं। ऊदबिलाव और कछुए भी बहुतायत में हैं। रामगंगा और उसकी सहायक नदियों में महासीर (स्पोर्टिंग फिश), गूंज, रोहू, ट्राउट, काली मच्छी, काला वासु और चिलवा प्रजाति की मछलियां भी देखी जा सकती हैं। किंग कोबरा, कैरेट, रूसलस, वाइपर और विशालकाय अजगर जैसी सर्प प्रजातियों के दर्शन भी यहां सम्भव हैं।
कालाढूंगी में एक संग्रहालय भी है जहां जिम कार्बेट की स्मृतियों को संजो कर रखा गया है। यह संग्रहालय उसी भवन में बनाया गया है जिसमें कभी कार्बेट रहा करते थे। इस भवन के अहाते में जिम के प्रिय कुत्ते की भी कब्र है। इस संग्रहालय के अलावा पार्क में आप कालागढ बांध देखने भी जा सकते हैं। यह बांध अपने आप में एक अजूबा है क्योंकि इसका निर्माण सिर्फ मिट्टी से किया गया है।

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से