गुरुवार, मई 24, 2012

सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान- हरियाणा का एकमात्र

दिल्ली जैसे शहर की धक्कामुक्की और उबाऊ दिनचर्या से यदि आप उकता गये हैं, तो आप राजधानी से एकदम करीब सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान का रुख कर सकते हैं। अरावली पर्वत श्रंखलाओं की गोद में स्थित यह राष्ट्रीय उद्यान दिल्ली की सीमा से लगे हरियाणा राज्य के गुडगांव जिले में स्थित है।
करीब 1.47 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस राष्ट्रीय उद्यान के मध्य में पहुंचकर एक खूबसूरत झील के दर्शन होते हैं। सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान की धडकन और वन्य प्राणियों के लिये जीवनदायिनी है यह झील। मछलियों की मौजूदगी और दलदली वनस्पति की बहुतायत के चलते प्रवासी पंछी सर्दियां शुरू होते ही यहां आकर डेरा डाल देते हैं।
सुल्तानपुर हरियाणा का एकमात्र राष्ट्रीय उद्यान है। सुप्रसिद्ध विहंगप्रेमी स्वर्गीय सालिम अली और पीटर जैक्सन को इस जगह से बेहद लगाव था।
कब जायें: सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान के भ्रमण के लिये अक्टूबर से फरवरी के महीने सर्वोत्तम हैं।
कैसे जायें: निकटतम हवाई अड्डा पालम सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान से सिर्फ 35 किलोमीटर के फासले पर स्थित है। निकटतम रेलवे स्टेशन गुडगांव है और सडक मार्ग से आने वाले यात्री दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पकडकर सीधे सुल्तानपुर पहुंच सकते हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: गुडगांव 15 किलोमीटर, पालम 35 किलोमीटर, दिल्ली बस अड्डा 56 किलोमीटर, जयपुर 300 किलोमीटर, चण्डीगढ 384 किलोमीटर।
कहां रहें: सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के ठहरने के लिये कुटीर से लेकर वातानुकूलित कमरों तक की व्यवस्था है। पर्यटक चाहें तो दिनभर यहां भ्रमण करने के बाद शाम को दिल्ली भी जा सकते हैं।
क्या देखे: सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान उन पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करता है जिन्हें पक्षियों से लगाव है। यह स्थाई और प्रवासी दोनों ही प्रकार के पक्षियों का घर है। यहां सारस, क्रेन, स्पॉट बिल, गीज और बत्तख सुगमतापूर्वक देखे जा सकते हैं। पेडों पर रहने वाले पक्षियों- बुलबुल, नीलकण्ठ, फाख्ता और मैना के शोरगुल के बीच अगर नृत्यरत मोर के दर्शन हो जायें तो यात्रा सफल हो जाती है।
पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार सुल्तानपुर राष्ट्रीय उद्यान में 100 से अधिक प्रजातियों के पक्षी देखे जा सकते हैं।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

बुधवार, मई 23, 2012

कान्हा नेशनल पार्क- कुदरत का करिश्मा

मध्य प्रदेश के मण्डला और बालाघाट जिलों में मैकल पर्वत श्रंखलाओं की गोद में स्थित कान्हा देश के सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय उद्यानों में एक है। कान्हा महज एक पर्यटन केन्द्र ही नहीं है, बल्कि भारतीय वन्य जीवन के प्रबंधन और संरक्षण की सफलता का प्रतीक भी है। हृष्ट-पुष्ट जंगली जानवरों के लिये पूरी दुनिया में मशहूर कान्हा में प्रतिवर्ष एक लाख से अधिक सैलानी घूमने आते हैं।
कान्हा मध्य प्रदेश का पहला राष्ट्रीय उद्यान है। वन्य जन्तुओं की सघनता की दृष्टि से यह उद्यान काफी समृद्ध है। 940 वर्ग किलोमीटर दायरे में सदाबहार साल वनों से आच्छादित कान्हा एक अदभुत वन्य प्रान्तर है। प्रबंधन की दृष्टि से यह कान्हा, किसली, मुक्की, सुपरवार और मैसानघाट नामक पांच वन परिक्षेत्रों (रेंज) में बंटा हुआ है। पार्क में पर्यटकों के प्रवेश के लिये खटिया (किसली रेंज) और मुक्की में दो प्रवेश द्वार (बैरियर) हैं। यहां से पार्क के प्रमुख पर्यटन क्षेत्र कान्हा की दूरी क्रमशः 10 और 30 किलोमीटर है।
अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिये दुनियाभर में मशहूर इस राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना सन 1955 में हुई और सन 1974 में इसे प्रोजेक्ट टाइगर के अधीन ले लिया गया।
कब जायें: कान्हा राष्ट्रीय उद्यान 1 जुलाई से 31 अक्टूबर के मध्य वर्षा के दौरान पर्यटकों के लिये बन्द रहता है। यहां भ्रमण के लिये नवम्बर से जून तक कभी भी जाया जा सकता है। सर्दियों में ऊनी और गर्मियों में हल्के सूती वस्त्रों की जरुरत पडती है।
कैसे जायें: जबलपुर निकततम हवाई अड्डा है। रेल से आने वाले मुसाफिरों को भी कान्हा आने के लिये जबलपुर रेलवे स्टेशन पर उतरना चाहिये। जबलपुर से कान्हा के लिये नियमित बस सेवा समेत सभी प्रकार की सडक परिवहन सुविधाएं उपलब्ध हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 980 किलोमीटर, मुम्बई 1305 किलोमीटर, नागपुर 290 किलोमीटर, भोपाल 540 किलोमीटर, जबलपुर 165 किलोमीटर।
कहां ठहरें: कान्हा आने वाले पर्यटकों के लिये आवास की स्तरीय सुविधाएं सुलभ हैं। भारतीय पर्यटन विकास निगम द्वारा संचालित सफारी लॉज में पर्यटकों के लिये वातानुकूलित आवास की सुविधा है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम का किसली स्थित यूथ हॉस्टल और टूरिस्ट बंगला मुक्की और टूरिस्ट हट खटिया में भी खाने-पीने और ठहरने की अच्छी व्यवस्था है।
क्या देखे: बाघ देखू पर्यटकों के लिये कान्हा स्वर्ग है। दरअसल कान्हा में बाघ दर्शन ने पर्यटन को काफी बढावा दिया है। कान्हा, किसली और मुक्की में वन विभाग के पालतू हाथी सुबह सवेरे पांच साढे पांच बजे ही घने जंगलों में बाघ की तलाश में निकल पडते हैं। वर्षों के अनुभव से महावत बाघ की खोज में माहिर हो गये हैं।
बाघ के पदचिन्ह, वन्य जन्तुओं की अलार्म काल, लंगूरों की हलचल और गिद्धों की मंडराहट के जरिये वे बाघ खोज लेते हैं। बाघ की खोज के बाद वायरलेस के जरिये सूचना भेज दी जाती है कि अमुक स्थान पर बाघ मिल गया है।
इस सन्देश के पश्चात बाघ देखू पर्यटक निर्धारित स्थल तक वाहन से पहुंचते हैं और वहां से हाथी पर सवार होकर बाघ देखने जाते हैं। आमतौर पर बाघ आदमी को देखते ही भाग जाते हैं, मगर कान्हा के बाघ कैमरे और दूरबीनों से लैस हाथी के हौदे पर सवार पर्यटकों को देखने के आदी हो चुके हैं।
बाघ के अतिरिक्त कान्हा में बारहसिंघा की एक दुर्लभ प्रजाति पंकमृग (सेर्वुस बांडेरी) भी पाई जाती है। सन 1970 में यहां इनकी संख्या 3000 से घटकर सिर्फ 66 रह गई थी। बाद में एक विशेष योजना के जरिये इनकी जनसंख्या वृद्धि के प्रयास किये गये जो काफी हद तक सफल रहे। बाघ और बारहसिंघा के अतिरिक्त यहां भालू, जंगली कुत्ते, काला हिरण, चीतल, काकड, नीलगाय, गौर, चौसिंगा, जंगली बिल्ली और सूअर भी पाये जाते हैं। इन वन्य प्राणियों को हाथी की सैर अथवा सफारी जीप के जरिये देखा जा सकता है।
वन्य प्राणियों के दर्शन के अतिरिक्त पर्यटकों को पार्क में स्थित ब्राह्मणी दादर भी जरूर जाना चाहिये। किसली से करीब 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस जगह से सूर्यास्त का मनोरम दृश्य दर्शकों को मुग्ध कर देता है।
कान्हा का इलाका आदिवासियों का गढ है। पर्यटक पार्क के निकटवर्ती भीलवानी, मुक्की, छपरी, सोनिया, असेली आदि वनग्रामों में जाकर यहां की प्रमुख बैगा जनजाति के लोगों से मिल सकते हैं। उनकी अनूठी जीवनशैली और परिवेश का पर्यवेक्षण निःसन्देह आपकी यात्रा की एक और स्मरणीय सौगात होगी।

लेख: अनिल डबराल: हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, मई 20, 2012

सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान- जंगल के रोमांच का नाम

सरिस्का आने के लिये आप जयपुर या अलवर से रेलगाडी से भी पहुंच सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 8 पर स्थित होने के कारण यहां सडक परिवहन से पहुंचना भी काफी सुगम है। दिल्ली से कार द्वारा यहां पहुंचने में सिर्फ चार घण्टे का समय लगता है और जयपुर से यहां दो घण्टे में पहुंच जाते हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 202 किलोमीटर, जयपुर 107 किलोमीटर, अलवर 34 किलोमीटर।
कहां ठहरें: सरिस्का की सैर के लिये एक दिन का समय काफी है। जयपुर से बस या टैक्सी से सुबह सरिस्का आकर उसी शाम वापस जयपुर पहुंचा जा सकता है। फिर भी यदि आप यहां ठहरना चाहें तो आवास के लिये सरिस्का में पर्याप्त सुविधाएं मौजूद हैं। सरिस्का पैलेस, राजस्थान स्टेट होटल, टूरिस्ट बंगला, टाइगर डीन बंगला और टूरिस्ट रेस्ट हाउस में ठहरने की अच्छी सुविधाएं हैं।
क्या देखें: बाघ सरिस्का का मुख्य आकर्षण है। सन 1988 में यहां 45 बाघ थे किन्तु अब (1995) में यह संख्या घटकर आधी हो गई है। अवैध शिकार, अवैध खनन और उससे उत्पन्न शोर-शराबे ने सरिस्का के बाघों पर प्रतिकूल असर डाला है। फिर भी यदि आप सौभाग्यशाली हैं तो सरिस्का की काली घाटी, राइका, काकवाडी, माला, पाण्डुपोल, उमरी और देबरी के जंगलों में वनराज के दर्शन हो सकते हैं।
सरिस्का का वन्य जीवन काफी विविधतापूर्ण है। बाघों के अलावा आप यहां काला हिरण, सांभर, चीतल, नीलगाय और चौसिंगा हिरणों के झुण्ड को कुलांचे भरते देख सकते हैं। जंगली सूअर, लंगूर, बन्दर, गीदड और लोमडी भी यहां काफी तादाद में मौजूद हैं। हजारों की संख्या में राष्ट्रीय पक्षी मोर, गरुड, उल्लू, कठफोडवा और किंगफिशर जैसी दर्जनों प्रजातियों के पक्षी भी यहां पर्यटकों की अगवानी के लिये सदैव तैयार मिलते हैं।
सरिस्का की हरियाली, ताल-तलैये और नुकीली चट्टानें भी पर्यटकों को आकर्षित करती हैं। सरिस्का जायें तो भीषण गर्मी और सूखे में भी हरे रहने वाले हिंगोट और रौहंज प्रजाति के पेडों की पहचान करना न भूलें।
राष्ट्रीय उद्यान में हनुमानजी का प्राचीन मन्दिर, मुगलकालीन काकवाडी का किला और अलवर नरेश जयसिंह द्वारा निर्मित (अब होटल) भी दर्शनीय हैं। जंगल में यहां-वहां आठवीं से दसवीं सदी के मध्य निर्मित हिन्दू और जैन मन्दिरों के अवशेष भी नजर आते हैं।
राष्ट्रीय उद्यान में सैर के लिये जालीदार जीपों की व्यवस्था है। इनमें बैठकर पर्यटक सरिस्का भ्रमण का आनन्द ले सकते हैं। सरिस्का में पर्यटकों की काफी भीडभाड रहती है। औसतन 250 वाहन प्रतिदिन राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करते हैं। सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान में पहले पर्यटकों को रात्रि में भी घुमाने की व्यवस्था थी लेकिन वन्य जन्तुओं की शान्ति में बाधा न पडे, इसलिये इसे बन्द कर दिया गया है। सूर्यास्त के बाद पर्यटकों को राष्ट्रीय उद्यान में घूमने की मनाही कर दी गई है। इसलिये सूर्यास्त से पहले ही उद्यान क्षेत्र से बाहर निकल आना चाहिये।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, मई 19, 2012

पेरियार राष्ट्रीय उद्यान- प्राकृतिक सौन्दर्य की अदभुत थाती

कुदरत ने केरल में मुक्तहस्त से अपना वैभव बिखेरा है। चप्पे-चप्पे पर बिखरी हरियाली, हरे-भरे वृक्षों से ढके पर्वत, नदियों और झीलों की यह धरती प्रकृति प्रेमियों के लिये स्वर्ग है। राज्य के एक चौथाई क्षेत्र में सदाबहार वन हैं, जहां जंगल की खुशनुमा दुनिया आबाद है। इस छोटे से प्रान्त में प्रकृति के सुन्दरतम स्वरूप की झलक पेरियार राष्ट्रीय उद्यान में देखने को मिलती है, वह अभिभूत हो उठता है इसके सौन्दर्य पर। सचमुच पेरियार दुनिया के उन राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है, जहां वन्य प्राणियों का भरा-पूरा साम्राज्य आपको रोमांचित कर देता है।
पश्चिमी घाट की खूबसूरत पहाडियों से घिरा पेरियार राष्ट्रीय उद्यान 777 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। पार्क के बीचोंबीच केरल की सबसे लम्बी पेरियार नदी पर एक कृत्रिम झील बनाई गई है। 26 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली इस झील के चारों ओर घने जंगल पसरे हुए हैं, जहां वन्य प्राणियों की आवाजें जंगल की निस्तब्धता को भंग करती हैं। सन 1973 में पेरियार को ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ क्षेत्र में शामिल किया गया। यह भारत के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र का अंतिम टाइगर रिजर्व है। नवीनतम गणना के अनुसार इस समय (1995) यहां 80 बाघ हैं।
कब जायें: मानसूनी बरसात के तीन महीनों को छोडकर पेरियार की यात्रा सितम्बर से मई के मध्य कभी भी की जा सकती है। गर्मी के मौसम में यहां अधिकतम तापमान 29 डिग्री तथा सर्दियों में न्यूनतम तापमान 15.5 डिग्री तक पहुंच जाता है। गर्मियों में सूती और सर्दियों में हल्के गरम कपडों की जरुरत पडती है।
कैसे जायें: पेरियार के लिये निकटतम हवाई अड्डा मदुरई है। आप चाहें तो तिरुअनन्तपुरम अथवा कोचीन की हवाई यात्रा से भी यहां पहुंच सकते हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन बोदिनायकानूर 67 किलोमीटर दूर है। वैसे मदुरई, कोचीन अथवा कोट्टायम तक रेल यात्रा के बाद सडक परिवहन के जरिये यहां पहुंचना अधिक सुविधाजनक है। पेरियार दक्षिण भारत के सभी प्रमुख नगरों से सडक मार्ग द्वारा जुडा हुआ है। कोचीन, तिरुअनन्तपुरम, कोट्टायम और मदुरई से यहां के लिये नियमित बस सेवाएं सुलभ हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: तिरुअनन्तपुरम 220 किलोमीटर, कोचीन 200 किलोमीटर, कोडाईकनाल 160 किलोमीटर, मदुरई 145 किलोमीटर, चेन्नई 639 किलोमीटर।
कहां ठहरें: पर्यटकों के लिये पेरियार में ठहरने के लिये आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न प्राइवेट होटल, लॉज और सरकारी विश्राम गृह मौजूद हैं। केरल पर्यटन विकास निगम (केटीडीसी) द्वारा संचालित अरण्य निवास और लेक पैलेस में वातानुकूलित कमरों की सुविधा है। केटीडीसी का पेरियार हाउस, लेक क्वीन, अम्बाडी, वन रानी, होली-डे होम, रानी लॉज आदि में भी ठहरने की समुचित व्यवस्था है। इनके अतिरिक्त वन विभाग की ओर से तन्निकुडी, मुल्लाकुडी और मानकावला में पर्यटकों के लिये रियायती दरों पर आवासीय सुविधाएं उपलब्ध हैं।
क्या देखें: जल-क्रीडा में मग्न हाथियों को देखना पेरियार का मुख्य आकर्षण है। यहां झील में तैरते हाथी अक्सर नजर आ जाते हैं। गर्मी के मौसम में अपने शरीर को ठण्डक पहुंचाने के लिये बाघ भी झील में कूद पडते हैं। यदि आप भाग्यशाली हैं तो ये दुर्लभ नजारा आपको भी नजर आ सकता है।
हाथी और बाघ के अलावा यहां गौर, चीतल, सांभर, बन्दर, जंगली सूअर और भालू भी पाये जाते हैं।
उद्यान की सैर के लिये हालांकि यहां प्रशिक्षित हाथियों की समुचित व्यवस्था है, लेकिन इस प्रचलित तरीके से घूमने की बजाय मोटर बोट से यहां भ्रमण का एक अलग ही मजा है। झील में नौकायन के दौरान तटवर्ती क्षेत्र में जंगली जानवर खासतौर पर हाथी, गौर और हिरणों के झुण्ड नजर आ जाते हैं। पेरियार में नौकायन के साथ साथ जंगली जानवरों को निहारने का अनुभव सचमुच अनूठा है। अरण्य निवास से प्रातः 7 बजे से सायं 3 बजे तक प्रत्येक दो घण्टे के अन्तराल में यहां सैर के लिये मोटर बोट की सुविधा उपलब्ध है।
पेरियार के इर्द-गिर्द कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें अरूवी क्रीक (16 किलोमीटर), क्रूसोई आइलैण्ड (19 किलोमीटर), मानकावला (10 किलोमीटर), मुल्लकुडी (29 किलोमीटर), पवारासू (19 किलोमीटर) और पेरियार बांध (12 किलोमीटर) आदि प्रमुख हैं। यदि आपके पास पर्याप्त समय हो तो उक्त स्थलों की सैर अवश्य करनी चाहिये। इन स्थलों की ओर जाते समय रास्ते में आपको नारियल, रबड, कॉफी और कालीमिर्च के बागान भी देखने को मिलेंगे।
कुल मिलाकर पेरियार की यात्रा एक अनूठा अनुभव है। हरियाली और पानी से घिरी इस जगह की शान ही निराली है।

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर, 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शुक्रवार, मई 18, 2012

दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान- कुदरत की खुशबू से सराबोर

हांगुल प्रजाति के हिरणों के लिये प्रसिद्ध दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान वन्य जन्तु प्रेमियों को हमेशा से आकर्षित करता रहा है। 141 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह राष्ट्रीय उद्यान दुर्लभ वन्य प्राणियों का डेरा है। दाचीगाम के शान्त और सुरम्य वातावरण में पहुंच कर पर्यटक प्रकृति और वन्य जन्तुओं के स्वच्छंद विहार को देखकर खो सा जाता है।
किसी जमाने में दाचीगाम शाही शिकारगाह के रूप में मशहूर था। इस वन्य क्षेत्र में कश्मीर नरेश और उनके विशिष्ट मेहमानों को ही शिकार करने की अनुमति थी। स्वतंत्रता के बाद इसे अभयारण्य का दर्जा दिया गया और सन 1987 में इसे राष्ट्रीय उद्यान में तब्दील कर दिया गया। जम्मू कश्मीर के चार राष्ट्रीय उद्यानों में से सबसे समृद्ध दाचीगाम अपनी जैव विविधता के कारण पूरी दुनिया में मशहूर है।
कब जायें: गर्मी का मौसम दाचीगाम की सैर के लिये अनुकूल रहता है, वैसे सर्दियों में भी पार्क के निचले हिस्सों में भ्रमण का आनन्द लिया जा सकता है। बहरहाल आतंकवादी गतिविधियों के कारण कश्मीर के इस मशहूर राष्ट्रीय उद्यान में प्रकृति एवं वन्य जन्तु प्रेमियों के लिये घूमना फिलहाल असुरक्षित है। सुधरे हुए हालात में आप यहां भ्रमण का कार्यक्रम बना सकते हैं।
कैसे जायें: दाचीगाम का निकटतम हवाई अड्डा श्रीनगर सिर्फ 20 किलोमीटर दूर है। श्रीनगर के लिये जम्मू, चण्डीगढ और दिल्ली से सीधी विमान सेवा उपलब्ध है।
निकटतम रेलवे स्टेशन जम्मूतवी है जहां देश के विभिन्न हिस्सों से रेलगाडियां पहुंचती हैं। यहां से दाचीगाम तक का सफर सडक मार्ग से बस या टैक्सी द्वारा तय किया जा सकता है।
प्रमुख नगरों से दूरी: श्रीनगर 20 किलोमीटर, जम्मू 320 किलोमीटर, चण्डीगढ 668 किलोमीटर, दिल्ली 906 किलोमीटर, मुम्बई 2284 किलोमीटर।
कहां ठहरें: दाचीगाम गेस्ट हाउस पार्क में आवास के लिये एक उपयुक्त जगह है। वैसे पर्यटक श्रीनगर में रहते हुए भी सुगमतापूर्वक दाचीगाम आ जा सकते हैं।
क्या देखें: दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान का मुख्य आकर्षण है- हांगुल। यूरोपियन रेड डियर प्रजाति का यह मासूम हिरण पूरी दुनिया में सिर्फ यहीं पाया जाता है। अत्यन्त दुर्लभ प्रजाति का यह मृग अपने अस्तित्व के लिये जूझ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय वन्य जीव संरक्षण संघ की रेड डाटा बुक में हांगुल का भी नाम दर्ज है।
विश्व वन्य जन्तु कोष के सहयोग से जम्मू कश्मीर सरकार ने हांगुलों के समुचित संरक्षण के लिये सन 1970 में प्रोजेक्ट हांगुल नाम की एक विशेष परियोजना शुरू की। यह परियोजना काफी हद तक सफल रही और सन 1988 में यहां हांगुलों की संख्या 170 से बढकर 818 तक पहुंच गई। किन्तु इसके बाद राज्य में लगातार बढती हुई आतंकवादी गतिविधियों के कारण हांगुलों का जमकर शिकार किया गया और सिर्फ चार वर्ष में ही सात सौ से अधिक हांगुल मार डाले गये। राज्य सरकार ने वर्ष 1992 में जब हांगुलों की गणना कराई तो इनकी संख्या सिर्फ सौ के करीब पाई गई। हांगुलों की घटती संख्या पर समस्त विश्व में चिन्ता व्यक्त की गई। सैन्य बल की मदद से वन्य जन्तु संरक्षकों ने हांगुलों की हर सम्भव सुरक्षा की, खासतौर पर तस्करों, घसियारों और लकडी काटने वालों पर विशेष नजर रखी गई। इस सुरक्षा व्यवस्था से दाचीगाम में हांगुलों के अवैध शिकार में कमी आई है। अब इनकी संख्या में बढोत्तरी हुई है। जनवरी 1995 की गणना में यहां 290 हांगुल पाये गये जिनमें 24 नर, 181 मादा और शेष बच्चे थे।
कश्मीरी बारहसिंगा के नाम से प्रसिद्ध हांगुल गर्मियों में ऊपरी दाचीगाम की 9000 से 16000 फीट ऊंची पहाडियों में चले जाते हैं, जहां वे पतझड तक निवास करते हैं। सर्दियों में हांगुल निचली पहाडियों में चले आते हैं और बसन्त तक यहीं रहते हैं। ऊपरी दाचीगाम, दारा, न्यूथेड, खामोह, ओवरो, तराल और सांगर गुलु क्षेत्र में इन्हें अपेक्षाकृत सुगमतापूर्वक देखा जा सकता है।
दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान के वन्य आकर्षणों में कस्तूरी मृग, तेंदुआ, काला और भूरा भालू, जंगली बिल्ली, मार्टिन मारमोट, लाल लोमडी और जंगली बकरी को देखना एक रोमांचकारी अनुभव है।

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

गुरुवार, मई 17, 2012

केबुल लामजाओ- दुनिया का एकमात्र तैरता हुआ राष्ट्रीय उद्यान

पूर्वोत्तर भारत का मनोरम पहाडी प्रान्त मणिपुर अपनी समृद्ध लोक-नृत्य परम्परा के लिये प्रसिद्ध है। यहां के मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति का एक-एक अंग नृत्य के आगोश में समाया रहता है। यहां तक कि मणिपुरी हिरण संगाई भी हरदम नाचने-कूदने में ही मशगूल रहता है। इसीलिये इसे डांसिंग डियर भी कहा जाता है। पूरी दुनिया में सिर्फ मणिपुर में पाये जाने वाले हिरण की इस दुर्लभ प्रजाति के संरक्षण के लिये केबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की गई। सिर्फ 40 वर्ग किलोमीटर दायरे में फैला यह राष्ट्रीय उद्यान अपनी किस्म का अनूठा उद्यान है। इसका एक बडा हिस्सा झील में तैरता रहता है। इसीलिये इसे फ्लोटिंग पार्क यानी कि तैरता हुआ उद्यान भी कहा जाता है।
कब जायें: केबुल लामजाओ की यात्रा के लिये अक्टूबर से अप्रैल का समय सबसे उपयुक्त है। इस मौसम में केबुल लामजाओ का सौन्दर्य और भी निखर उठता है।
कैसे जायें: केबुल लामजाओ जाने के उत्सुक पर्यटकों के लिये दिल्ली, कलकत्ता और गुवाहाटी से इम्फाल तक वायुसेवा उपलब्ध है। इम्फाल से दीमापुर का निकटतम रेलवे स्टेशन 125 किलोमीटर दूर है, किन्तु यात्रा की दृष्टि से यह सुविधाजनक नहीं है। आप गुवाहाटी तक ट्रेन से आने के बाद वहां से डीलक्स बस अथवा टैक्सी के जरिये इम्फाल पहुंच सकते हैं। सडक मार्ग से यात्रा के दौरान आपको नागालैण्ड से होकर गुजरना पडेगा, जिसके लिये ‘इनर लाइन परमिट’ बनाना आवश्यक है। ये परमिट नागालैण्ड सरकार के नई दिल्ली, कलकत्ता, गुवाहाटी, शिलांग और दीमापुर स्थित कार्यालयों से प्राप्त किये जा सकते हैं।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 2611 किलोमीटर, कलकत्ता 1728 किलोमीटर, शिलांग 677 किलोमीटर, दीमापुर 160 किलोमीटर, इम्फाल 45 किलोमीटर।
कहां ठहरें: पर्यटकों के आवास के लिये यहां समुचित प्रबन्ध है और वन विभाग की ओर से दो विश्रामगृह बनाये गये हैं। इसके अतिरिक्त झील के बीच में बना सैन्द्रा टूरिस्ट सैंटर और मोईरांग में भी ठहरने की उत्तम व्यवस्था है। वैसे आप इम्फाल में रहकर भी सुगमतापूर्वक केबुल लामजाओ पहुंच सकते हैं। मणिपुर स्टेट ट्रांसपोर्ट के ओर से पर्यटकों के भ्रमण के लिये इम्फाल से यहां के लिये टूरिस्ट बस अथवा टैक्सी की भी व्यवस्था है।
क्या देखें: संगाई केबुल लामजाओ राष्ट्रीय उद्यान की बेशकीमती सौगात है। यह विश्व की सबसे संकटापन्न हिरण प्रजाति है। संगाई मणिपुरी नाम है। हिन्दी में इन्हें थामिन और अंग्रेजी में ब्रो एंटलर्ड डियर कहा जाता है। यह नाम इसलिये रखा गया क्योंकि इन हिरणों के सींग, भौहों के करीब से निकलते हैं। वैसे इनका वैज्ञानिक नाम है- सरकस एल्डी। बडी संख्या में मानव द्वारा आहार बनाये जाने के कारण संगाई हिरणों की संख्या निरन्तर घटती चली गई और 1951 में मणिपुर सरकार ने इनके विलुप्त होने की घोषणा कर दी किन्तु बाद में व्यापक खोज के बाद कुछ संगाई पाये गये और इन्हें बचाने के उद्देश्य से 1954 में केबुल लामजाओ अभयारण्य की स्थापना की गई।
अभयारण्य बनने के बावजूद भी केबुल लामजाओ में संगाई हिरणों के अवैध शिकार पर पूरी रोक नहीं लग पाई और 1977 की गणना में यहां सिर्फ 18 संगाई पाये गये। वन्य जन्तु प्रेमियों और अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ की चिन्ता पर केन्द्र सरकार ने 1977 में केबुल लामजाओ को नेशनल पार्क का दर्जा दे दिया। संगाई हिरणों के संरक्षण के लिये सभी संभव प्रयास किये गये और इसके लिये पर्याप्त संख्या में वन्य जन्तु रक्षकों की व्यवस्था की गई। इन सब का नतीजा यह हुआ कि 1986 में संगाई हिरणों की संख्या 18 से बढकर 95 हो गई। मार्च 1995 की नवीनतम गणना के अनुसार यहां 152 संगाई हैं जिनमें 58 नर, 69 मादा और 25 बच्चे हैं।
सचमुच केबुल लामजाओ और संगाई एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। दलदली क्षेत्र में धंसते हुए पांवों के बीच जब ये अपने शरीर को सन्तुलित करते हैं तो ऐसा लगता है जैसे ये नाच रहे हों। केबुल लामजाओ के दलदली टापुओं पर जब संगाई हिरणों का झुण्ड नृत्य करता है तो ऐसा लगता है जैसे कृष्ण की गोपियां रास रचा रही हों।
निःसन्देह संगाई केबुल लामजाओ का मुख्य आकर्षण है लेकिन इनके अलावा भी यहां कुछ और वन्य प्राणी निवास करते हैं। इनमें 118 हॉग डियर और 100 जंगली सूअरों के साथ ही ऊदबिलाव, गिलहरी, लंगूर और दर्जनों किस्म के जलीय पक्षी शामिल हैं। यदि आप प्रवासी पक्षियों को देखने के उत्सुक हैं तो नवम्बर से मार्च का समय यहां विहंगावलोकन के लिये सबसे उपयुक्त है। इस मौसम में साइबेरियन पक्षियों के कलरव से केबुल लामजाओ की सूनी वादियां गूंज उठती हैं।
दुर्लभ पशु-पक्षियों के अलावा अपार जल-राशि, मछलियां, कछुए, हरी-भरी वनस्पतियां, हर मौसम में खिलने वाले लोक लेई, पुलैई व खोयमौम जैसे जंगली फूल और चारों ओर छोटी-बडी पहाडियों का अलौकिक सौन्दर्य केबुल लामजाओ को बेहद आकर्षक बना देता है।
केबुल लामजाओ दुनिया का एकमात्र तैरता हुआ राष्ट्रीय उद्यान है। इसका एक बडा हिस्सा लोकताक झील में छोटे छोटे टापुओं के रूप में तैरता रहता है। सडी घास-फूस से बने ये टापू कुदरत की अनूठी देन हैं। इनका पांचवां भाग जल के ऊपर तथा शेष भाग जल में समाया रहता है। वन्य प्राणियों के लिये ये उत्तम चरागाह भी हैं। इनमें 15 फीट ऊंची घास उग आती है, जिसे ‘फुमदी’ कहा जाता है।
जब कभी भी आप केबुल लामजाओ आयें, लोकताक झील के बीचोंबीच स्थित सैंद्रा कैफेटेरिया और निकटवर्ती मोईरांग कस्बे की सैर अवश्य कीजियेगा। यह ऐतिहासिक नगर ‘खुंबा-थोईबी’ की याद दिलाता है जिनके अमर प्रेम की कहानी मणिपुर के हर घर में कही सुनी जाती है।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

बुधवार, मई 16, 2012

कार्बेट नेशनल पार्क- भारत का पहला राष्ट्रीय उद्यान

उत्तराखण्ड हिमालय की तलहटी में स्थित कार्बेट नेशनल पार्क दुनिया के चर्चित राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है। कुदरत ने यहां जमकर अपना वैभव बिखेरा है। हरे-भरे वनों से आच्छादित पहाडियां, कल-कल बहते नदी नाले, चौकडी भरते हिरणों के झुण्ड, संगीत की तान छेडते पंछी, नदी तट पर किलोल भरते मगर, चिंघाडते हुए हाथियों के समूह और शेर की दहाड से गूंजते जंगल कार्बेट नेशनल पार्क की सैर को अविस्मरणीय बना देते हैं।
कार्बेट नेशनल पार्क को देश का पहला राष्ट्रीय उद्यान होने का गौरव प्राप्त है। इसकी स्थापना 8 अगस्त 1936 में हुई। ब्रिटिश शासन से पूर्व यह क्षेत्र पाताली दून के स्थानीय शासक के अधीन था। सन 1820 में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आने पर इमारती लकडी के लिये यहां वनों में भारी कटान किया गया। सन 1858 में मेजर रैमजे के प्रयासों से यहां के वनों को सुरक्षित रखने के लिये व्यवस्थित कदम उठाये गये। इसी क्रम में सन 1861-62 में ढिकाला और ‘बोक्साड के चौडों’ (घास के मैदान) में खेती, मवेशियों को चराने और लकडी कटान पर रोक लगा दी गई। सन 1868 में इन वनों की देखभाल का जिम्मा वन विभाग को सौंपा गया और 1879 में इसे आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया।
सन 1907 में सर माइकल कीन ने इन वनों को वन्य प्राणी अभयारण्य बनाने का प्रस्ताव रखा किन्तु सर जौन हिवेट ने इसे अस्वीकृत कर दिया। इसके पश्चात सन 1934 में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर मैल्कम हेली ने इसे अभयारण्य बनाने की योजना बनाई और इसी दौरान लन्दन में सम्पन्न संगोष्ठी में संयुक्त प्रान्त के पर्यवेक्षक स्टुवर्ड के प्रयासों से राष्ट्रीय उद्यान का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। इस तरह सन 1936 में राष्ट्रीय पार्क की स्थापना हुई और इसे हेली नेशनल पार्क के नाम से जाना जाने लगा। स्वतंत्रता के बाद इसका नाम रामगंगा नेशनल पार्क रखा गया किन्तु 1955 में मशहूर अंग्रेज शिकारी जिम कार्बेट के निधन के पश्चात श्रद्धांजलि स्वरूप इस पार्क को कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान नाम दे दिया गया। जिम कार्बेट ने इस उद्यान के सीमांकन और इसे स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गढवाल और कुमाऊं की पहाडी जनता को नरभक्षी बाघों से मुक्ति दिलाने के कारण कार्बेट अपने जीवन काल में ही एक दन्त कथा बन चुके थे। जानवरों और पक्षियों की बोली समझने में उन्हें महारथ हासिल था। पगडंडियों पर दबी घास, पंजे और खुरों के निशान से ही वह यह पता लगा लेते थे कि कौन सा जानवर कब उस राह से गुजरा था। जंगल और शिकार की कई लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक जिम कार्बेट ने अपने आखेट जीवन में सिर्फ उन्हीं शेर या तेंदुओं का शिकार किया जो आदमखोर थे।
शुरू में यह उद्यान 323.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ था। वन्य जन्तुओं की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सन 1916 में इसमें 197.07 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र और मिलाया गया। इस तरह इसका क्षेत्रफल बढकर 520.82 वर्ग किलोमीटर हो गया।
पहली अप्रैल 1973 को प्रोजेक्ट टाइगर नामक महत्वाकांक्षी परियोजना का श्रीगणेश भी कार्बेट नेशनल पार्क से किया गया। सन 1991 में कार्बेट टाइगर रिजर्व का विस्तार किया गया। राष्ट्रीय उद्यान के अतिरिक्त इसमें सोना नदी वन्य जन्तु विहार और कालागढ आरक्षित वन क्षेत्र मिलाकर इसका क्षेत्रफल बढकर 1318.54 वर्ग किलोमीटर हो गया है। कार्बेट के इस नये स्वरूप की अधिकांश पर्यटकों को अभी जानकारी नहीं है। यही वजह है कि विस्तृत टाइगर रिजर्व में आवासीय सुविधाओं के बावजूद भी पर्यटन गतिविधियां नगण्य हैं।
कब जायें: कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान अथवा टाइगर रिजर्व की सैर 15 नवम्बर से 15 जून के बीच कभी भी की जा सकती है। नवम्बर से फरवरी के मध्य यहां तापमान 25 से 30 डिग्री, मार्च-अप्रैल में 35 से 40 तथा मई-जून में 44 डिग्री तक पहुंच जाता है। इनमें से आप अपना पसंदीदा मौसम चुन सकते हैं।
कैसे जायें: यह सभी प्रमुख शहरों से सडक मार्ग से जुडा हुआ है। दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से गाजियाबाद, हापुड होकर मुरादाबाद पहुंचने के बाद यहां से स्टेट हाइवे 41 को पकडकर काशीपुर, रामनगर होते हुए यहां पहुंच सकते हैं। लखनऊ से भी राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से सीतापुर, शाहजहांपुर, बरेली होते हुए मुरादाबाद और वहां से उपरोक्त मार्ग से कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान पहुंचा जा सकता है।
निकटतम रेलवे स्टेशन रामनगर है जो दिल्ली, लखनऊ और मुरादाबाद से जुडा हुआ है। वायु मार्ग से यहां पहुंचने के लिये फूलबाग (पन्तनगर) निकटतम हवाई अड्डा है जो 115 किलोमीटर दूर है।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 290 किलोमीटर, लखनऊ 503 किलोमीटर, देहरादून 203 किलोमीटर।
कहां ठहरें: कार्बेट नेशनल पार्क और टाइगर रिजर्व में पर्यटकों के आवास के लिये ब्रिटिशकालीन वन विश्राम गृहों से लेकर आधुनिक पर्यटक आवास गृह और स्विस कॉटेज टैंट आदि की समुचित व्यवस्था है। सुविधाओं की दृष्टि से ढिकाला पर्यटकों के ठहरने की पसन्दीदा जगह है। इसके अतिरिक्त लोहा चौड, गैरल, सर्पदुली, खिनानौली, कण्डा, यमुनाग्वाड, झिरना, बिजरानी, हल्दू पडाव, मुडिया पानी और रघुवाढाव समेत 23 वन विश्राम भवन भी हैं। पर्यटक इन स्थानों में आवासीय सुविधा पाने के लिये सम्बद्ध वन प्रभाग कार्यालयों से समुचित जानकारी व अग्रिम आरक्षण करवा सकते हैं।
क्या देखें: कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान की जैव विविधता देखते ही बनती है। साल, शीशम, खैर, ढाक, सेमल, बेर और कचनार आदि वृक्षों से जंगल भरा पडा है। रामगंगा के इर्द-गिर्ग फैले ‘चौडों’ और ‘मंझाडे’ (जल के मध्य स्थित जंगल) में सैंकडों की तादाद में हिरणों के झुण्ड सहजता से नजर आ जाते हैं। ये स्थान पाडा, सूअर और हाथियों की भी पसन्दीदा जगह हैं। पार्क की छोटी-छोटी पहाडियां घुडल और काकड को देखने के लिये उपयुक्त हैं।
यदि आप सौभाग्यशाली हैं तो घनी झाडियों के पीछे छिपे रहने वाले बाघ, तेंदुए और भालू भी आपको नजर आ जायेंगे। पार्क में मौजूद हजारों लंगूर और बंदरों की उछल-कूद बच्चों का खूब मनोरंजन करती है।
रामगंगा नदी में, विशेष रूप से गहरे कुण्डों में शर्मीले स्वभाव के घडियाल और तटों पर समाधि में लीन मगर पाये जाते हैं। ऊदबिलाव और कछुए भी बहुतायत में हैं। रामगंगा और उसकी सहायक नदियों में महासीर (स्पोर्टिंग फिश), गूंज, रोहू, ट्राउट, काली मच्छी, काला वासु और चिलवा प्रजाति की मछलियां भी देखी जा सकती हैं। किंग कोबरा, कैरेट, रूसलस, वाइपर और विशालकाय अजगर जैसी सर्प प्रजातियों के दर्शन भी यहां सम्भव हैं।
कालाढूंगी में एक संग्रहालय भी है जहां जिम कार्बेट की स्मृतियों को संजो कर रखा गया है। यह संग्रहालय उसी भवन में बनाया गया है जिसमें कभी कार्बेट रहा करते थे। इस भवन के अहाते में जिम के प्रिय कुत्ते की भी कब्र है। इस संग्रहालय के अलावा पार्क में आप कालागढ बांध देखने भी जा सकते हैं। यह बांध अपने आप में एक अजूबा है क्योंकि इसका निर्माण सिर्फ मिट्टी से किया गया है।

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

सोमवार, अप्रैल 16, 2012

सुन्दर वन- विश्व विरासत

गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के मुहाने पर स्थित सुन्दरवन विश्व के दर्शनीय राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है। अपने अनूठे प्राकृतिक सौन्दर्य और भरपूर वन्य जीवन के लिये प्रसिद्ध सुन्दरवन को विश्व विरासत का दर्जा दिया गया है। पूरी दुनिया में रॉयल बंगाल टाइगर (पैंथरा टिगरिस) की सर्वाधिक आबादी इसी क्षेत्र में निवास करती है। सुन्दरवन की सघन हरियाली, अपार जलराशि से घिरे द्वीप समूह और डेल्टाई मिट्टी कुदरत की अनूठी कारीगरी को रूपांकित करती है।
पश्चिमी बंगाल के दक्षिणी छोर पर स्थित सुन्दरवन के 54 द्वीप समूहों में जंगल की रोमांचकारी दुनिया आबाद है। इनमें से कुछ आबादी वाले द्वीप हैं, जिनमें जनजातीय लोग निवास करते हैं। अपार जलराशि से घिरे सुन्दरवन में जलीय और स्थलीय प्राणियों का एक बडा परिवार निवास करता है। जल की बहुलता के कारण यहां के वन्य प्राणियों ने अपने आप को जलीय परिस्थितियों के अनुरूप बना लिया है। यही कारण है कि सुन्दरवन में निवास करने वाले अनेक वन्य प्राणियों की सामान्य आदतें या व्यवहार में अन्तर महसूस किया जा सकता है।
सुन्दरी (हिरीटीओरा फाम्स) नामक वृक्ष के बहुतायत में पाये जाने के कारण इस क्षेत्र को सुन्दरवन के नाम से जाना जाता है। सन 1973 में यहां 2585 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में प्रोजेक्ट टाइगर की स्थापना की गई और इसमें से 1330 वर्ग किलोमीटर के कोर क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया। सुन्दरवन उन पर्यटकों के लिये स्वर्ग है जो प्रकृति के अपार सौन्दर्य के बीच वन्य जन्तुओं के स्वच्छन्द विचरण को करीब से देखने की चाह रखते हैं।
कब जायें: सुन्दरवन के भ्रमण के लिये शरद और बसन्त ऋतुएं सबसे अच्छी हैं। इस मौसम की स्फूर्तिदायक हवा और यहां का शान्त सुरम्य वातावरण पर्यटन की रोचकता को बढा देते हैं। इस दौरान यहां हल्के ऊनी वस्त्रों की जरूरत पडती है। गर्मी के मौसम में आने वाले पर्यटकों को हल्के सूती और धूप से बचने के लिये टोपी पहनने की सलाह दी जाती है।
कैसें जायें: सुन्दरवन पहुंचने के लिये निकटतम हवाई अड्डा कोलकाता है। यह देश के सभी हिस्सों से बोईंग और एयर बस सेवा से जुडा हुआ है। कोलकाता से सुन्दरवन पहुंचने के लिये पोर्ट कैनिंग तक की यात्रा ट्रेन से की जा सकती है। यहां से आगे सुन्दरवन राष्ट्रीय उद्यान पहुंचने के लिये जल परिवहन का सहारा लेना पडता है। सडक परिवहन के जरिये आप बसन्ती सोनाखाली तक पहुंच सकते हैं। यहां से आगे पार्क का सफर मोटर लांच से तय किया जा सकता है। डेल्टाई क्षेत्र होने के कारण सुन्दरवन में भ्रमण के लिये जलीय मार्ग सुलभ है। इनसे आने जाने के लिये प्राइवेट मोटर बोट और लांच की समुचित व्यवस्था है। पश्चिम बंगाल पर्यटन विभाग की ओर से कलकत्ता लग्जरी बस और लांच के जरिये सुन्दरवन के पैकेज टूर की भी व्यवस्था है। यह दो दिवसीय यात्रा अक्टूबर से मार्च तक प्रत्येक सप्ताहांत में आयोजित की जाती है।
प्रमुख नगरों से दूरी: कोलकाता 106 किलोमीटर, दार्जीलिंग 756 किलोमीटर, दिल्ली 1547 किलोमीटर, पटना 650 किलोमीटर, मुम्बई 2186 किलोमीटर।
कहां ठहरें: सुन्दरवन में पर्यटकों के ठहरने के लिये वन विश्राम गृह एक उपयुक्त जगह है। इसके अतिरिक्त साजनीखाली में पश्चिम बंगाल पर्यटन विकास निगम द्वारा संचालित सुन्दर चीतल टूरिस्ट लॉज में भी खाने, पीने और ठहरने की समुचित व्यवस्था है। टूरिस्ट लॉज में ठहरने के लिये पर्यटन कार्यालय, कोलकाता से अग्रिम आरक्षण करा लेना चाहिये।
क्या देखें: सुन्दरवन रॉयल बंगाल टाइगर का घर है। यह भारत में बाघों के लिये बनाया गया दूसरा सबसे बडा आरक्षित क्षेत्र है। भारत में यहां बाघों की सर्वाधिक आबादी निवास करती है। ऐसा कहा जाता है कि यदि आप सुन्दरवन में हैं तो समझिये कि बाघ निश्चित तौर पर आपको देख रहा है। यहां के निवासी जंगल में जाते समय बाघों को डराने के लिये सिर के पीछे मुखौटे लगाते हैं।
सुन्दरवन के बाघों ने खुद को जलीय परिस्थितियों के अनुरूप बना लिया है। विशेषज्ञों के अनुसार यह एक साथ दस किलोमीटर दूरी तैरकर पार कर लेते हैं। नदी से मछलियां पकडने में ये माहिर होते हैं और मधुमक्खियों के छत्ते से शहद खाते हुए भी देखे जा सकते हैं। गर्मी के दिनों में पानी और सर्दी के मौसम में रेत में धूप सेंकते बाघ सुन्दरवन में अक्सर नजर आ जाते हैं।
रंग-बिरंगे जंगली फूल और पेड-पौधों का सौन्दर्य सुन्दरवन को अत्यन्त आकर्षक बना देता है। ‘सुन्दरी’ वृक्ष का सदाबहार सौन्दर्य भी पर्यटकों को लुभाता है। अप्रैल-मई में ‘जनवा’ वृक्ष की नई पत्तियों की रक्तिम आभा हरियाली के बीच से उभरती आग का सा आभास देती है। कनेर के लाल फूल और खालसी के पीले फूल जंगल में बंदनवार की तरह सजे नजर आते हैं। नीपा के पके हुए फलों पर लपकते बंदर और शर्मीली गर्वीली चिडियों की नोंक-झोंक को देख कर हृदय प्रफुल्लित हो उठता है।
सुन्दरवन में जलीय पक्षियों का एक विस्तृत दयार है। पक्षियों के निरीक्षण के लिये साजनीखाली सबसे उपयुक्त जगह है। यहां जुलाई से सितम्बर के मध्य नीड निर्माण में जुटे पंछियों को देखना अच्छा लगता है। यदि आप आकाश की ओर निगाहें दौडायें तो सफेद रंग के समुद्री गरुड की हवाई कलाबाजियां आपका खूब मनोरंजन करेंगी। उद्यान में परिचित और अपरिचित दोनों प्रकार के पंछी पाये जाते हैं। इनमें हरे रंग का कबूतर, प्लोवर, लेप विंग्स आदि के साथ ही कभी कभार पेलिकन भी नजर आ जाती है। मछली खाने में माहिर किंग फिशर की तो यहां सात प्रजातियां पाई जाती हैं।
भारतीय डॉल्फिन (प्लैटिनिस्ता गंगैटिक) सुन्दरवन में पाई जाने वाली दुर्लभ स्तनपायी प्रजाति है। पार्क के पश्चिमी हिस्से में बहने वाली माटला नदी में इन्हें देखना अपेक्षाकृत सुगम है। लहरों के साथ नाचती डॉल्फिन अत्यधिक रोमांच और कौतुहल उत्पन्न करती है। यहां मछलियों की 120 प्रजातियां पाई जाती हैं। मगर, शार्क, कछुए और केकडे सुन्दरवन के अन्य प्रमुख जलीय जन्तु हैं।
जंगली सुअर और चीतल भी यहां सुगमतापूर्वक नजर आ जाते हैं। यदि आप भौंकने वाला हिरण, काकड देखना चाहते हैं तो इसके लिये हॉलिडे आइलैण्ड जाना पडेगा। क्योंकि यह सिर्फ इसी द्वीप में पाया जाता है। सुन्दरवन में जंगली बिल्लियां भी मिलती हैं। ये भी यहां के बाघों की तरह पानी से मछलियां पकडकर उनका शिकार करने में माहिर होती हैं।
राष्ट्रीय उद्यान के इर्द गिर्द बिखरे टापुओं में कई दर्शनीय स्थल हैं। इनमें कलश द्वीप, लूथियन द्वीप, जम्मूद्वीप और हॉलीडे द्वीप प्रकृति की कारीगरी को समेटे हुए अत्यन्त सुन्दर स्थल हैं। यहां हर वर्ष सैंकडों पर्यटक घूमने फिरने आते हैं।
भगवतपुर स्थित मगरमच्छ प्रजनन केंद्र में आप मगरमच्छ के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अवलोकन कर सकते हैं। हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ गंगा सागर भी इसी क्षेत्र में स्थित है। यहां हर वर्ष मकर संक्रांति को एक बडा मेला लगता है।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, अप्रैल 15, 2012

दुधवा नेशनल पार्क- वन्य जन्तुओं की क्रीडा स्थली

उत्तर प्रदेश की तराई के दलदली किनारों और घने जंगलों के अंचल में वन्य प्राणियों की क्रीडा स्थली है- दुधवा राष्ट्रीय उद्यान। दुधवा अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और वैविध्यपूर्ण वन्य जीवन के लिये दुनिया भर में मशहूर है। कुदरत के इस दयार को देखने के लिये हर वर्ष हजारों सैलानी दुधवा पहुंचते हैं और अपने साथ यहां की अविस्मरणीय यादों की सौगात लेकर वापस लौटते हैं।
एक अरसे पहले तक दुधवा के ये जंगल स्थानीय रियासत के अधीन थे। यहां शाही शिकार के अनेक रोचक किस्से लोक कथाओं का हिस्सा बन चुके हैं। राष्ट्रीय उद्यान बनने से पूर्व दुधवा एक अभयारण्य था और इसकी स्थापना 1969 में हुई थी। उस समय इसका क्षेत्रफल सिर्फ 212 वर्ग किलोमीटर था। पहली फरवरी 1977 में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया और साथ ही इसका क्षेत्रफल बढाकर 498 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया। सन 1973 में दुधवा में बाघ परियोजना शुरू की गई। बाघ परियोजना यहां काफी हद तक सफल रही लेकिन इनकी सुरक्षा के लिये निर्धारित मानदण्डों के अनुरूप कर्मचारियों की यहां भारी कमी है।
इन सबके बावजूद दुधवा ने वन्य पर्यटन की दुनिया में अपने लिये एक खास जगह बना ली है। सुबह होते ही हाथियों के हौदों पर सवार पर्यटकों की टोलियां जंगल में प्रवेश के लिये तैयार मिलती है।
कब जायें: दुधवा राष्ट्रीय उद्यान के सौन्दर्य को 15 नवम्बर से 15 जून के मध्य निहारा जा सकता है। शरद ऋतु यहां के भ्रमण के लिये सबसे अच्छी है। इस मौसम में गर्मी भ्रमण का मजा किरकिरा नहीं कर पाती। सर्दियों में यहां के लिये गरम कपडे और शाम के लिये हल्की गरम शाल साथ लाना अच्छा रहता है।
कैसे जायें: निकटतम हवाई अड्डा लखनऊ है। यहां से आगे का सफर कार, बस या ट्रेन से तय किया जा सकता है। दुधवा दिल्ली, बरेली, पीलीभीत, मैलानी, सीतापुर, लखीमपुर खीरी और लखनऊ से रेलमार्ग द्वारा जुडा हुआ है। सडक मार्ग द्वारा दिल्ली से दुधवा जाने के लिये मुरादाबाद, बरेली, पीलीभीत, पूरनपुर, मैलानी और पलिया होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है। लखनऊ से सीतापुर, लखीमपुर खीरी और पलिया के रास्ते भी दुधवा पहुंचा जा सकता है।
प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 430 किलोमीटर, लखनऊ 238 किलोमीटर, मैलानी 100 किलोमीटर, बरेली 178 किलोमीटर।
कहां ठहरें: दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के ठहरने की समुचित व्यवस्था है। वन विभाग का विश्राम गृह पूर्ण शान्ति और एकान्त चाहने वालों के लिये उपयुक्त जगह है। आप चाहें तो यहां डोरमेट्री अथवा टेण्ट में भी निवास कर सकते हैं। सोनारीपुर, साथियाना, बनकट्टी, विल्लारिन, कैला और चन्दन चौकी में भी वन विभाग के विश्राम गृह हैं। इन विश्राम गृहों में आवासीय सुविधा पाने के लिये चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन, फील्ड डाइरेक्टर प्रोजेक्ट टाइगर और सम्बद्ध वन प्रभागीय कार्यालयों से अग्रिम आरक्षण कराया जा सकता है।
क्या देखें: सिर पर सींगों का मुकुट सजाये बारहसिंगा दुधवा की एक बेशकीमती सौगात है। हिरणों की यह विशेष प्रजाति ‘स्वैंप डियर’ अथवा ‘सेर्वुस डुवाउसेलि कुवियेर’ भारत और दक्षिण नेपाल के अतिरिक्त दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती है। नाम के अनुरूप सामान्यतः यह माना जाता है कि इस जाति के हिरणों के बारह सींग होंगे लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। बारहसिंगा के सिर पर दो सींग होते हैं और वे ऊपर जाकर अनेक शाखाओं में विभक्त हो जाते हैं। आमतौर पर इनकी संख्या 10 से 14 के बीच होती है। दुधवा के कीचड-कादों वाले दलदली इलाकों में बारहसिंगा के झुण्ड नजर आते हैं। इस पशु के सम्मान में लखनऊ और दुधवा के बीच चलने वाली एक पर्यटक बस का नाम ही बारहसिंगा रखा गया है।
दुधवा में बाघ देखना दूसरे अनेक राष्ट्रीय उद्यानों की अपेक्षा अधिक सुगम है। इसकी वजह यह है कि यहां बाघों की काफी आबादी निवास करती है। नवीनतम गणना (1995) के अनुसार सुन्दरवन और सिमलीपाल के बाद सर्वाधिक बाघ दुधवा में ही हैं। इस समय (1995 में) यहां पर 94 बाघ हैं।
पार्क में 400 प्रजातियों के पक्षी पाये जाते हैं। जंगल की सैर के समय कई अपरिचित चिडियों से मुलाकात हो जाती हैं। आप इन्हें न भी देखें, तब भी इनकी स्वरलहरियां आपके कानों में मिश्री घोल जायेंगी। कई प्रकार के सांप, विशालकाय अजगर, मछलियां और मगरमच्छ भी यहां काफी संख्या में पाये जाते हैं।
बारहसिंगा के अतिरिक्त यहां हिरणों की छह और प्रजातियां भी पाई जाती हैं। ये हैं- चीतल, सांभर, काला हिरण, काकड और पाडा। जंगली हाथी, सूअर, भालू, तेंदुआ, लकडबग्घा, लोमडी, खरगोश, लंगूर और साही भी यहां देखे जा सकते हैं।
एक अरसे पहले तक उत्तर प्रदेश की तराई और दलदली इलाकों में भारतीय गैंडे बहुतायत में पाये जाते थे लेकिन आज इस तथ्य पर सहसा यकीन नहीं आता। 1910 में गैंडों को शासकीय सुरक्षा प्रदान की गई किन्तु इस घोषणा के कुछ पहले ही शिकारी यहां के जंगलों से गैंडों का सफाया कर चुके थे। उत्तर प्रदेश की धरती से गैंडों के लुप्त होने के करीब 100 वर्ष बाद दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में देश की पहली गैंडा पुनर्वास परियोजना शुरू की गई। सन 1984 में शुरू हुई इस परियोजना को काफी समय हो चुका है। इस अन्तराल में गैंडों की संख्या में अनुमान के अनुरूप वृद्धि तो नहीं हुई, फिर भी यह उम्मीद अवश्य जगी है कि आगामी पांच छह दशकों के भीतर इस क्षेत्र में गैंडे पहले की तरह की निर्भय विचरण कर सकेंगे।
दुधवा के इलाके में थारू जनजाति के लोग निवास करते हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस जाति की महिलाएं राजस्थान के राजवंश से सम्बद्ध हैं। इनके पुरुष सदस्य युद्ध में मारे गये और ऐसी स्थिति में अनेक थारू महिलाओं ने अपने सेवकों को पति के रूप में स्वीकार कर लिया। दुधवा के इर्द-गिर्द थारुओं के अनेक गांव हैं जहां इनके बीच पहुंचकर आप अपने वन पर्यटन की रोचकता को बढा सकते हैं।
राष्ट्रीय उद्यान में भ्रमण के लिये प्रशिक्षित हाथी, सफारी वाहन और कुशल पथ-प्रदर्शकों की समुचित व्यवस्था है। कौन सा जानवर किस स्थान पर होगा, इसका पता लगाने में इन्हें महारथ हासिल है।
दुधवा भ्रमण के दौरान जो चीज सबसे अधिक रोमांच और कौतुहल उत्पन्न करती है, वह है- टाइगर हैवन। पार्क के दक्षिणी छोर पर स्थित टाइगर हैवन बिली अर्जन सिंह नामक एक स्वतंत्र वन्य जीवन संरक्षणवादी का खूबसूरत आवास है। सन 1959 में सेना की नौकरी छोडने के बाद से ‘बिली’ विडाल परिवार के वन्य पशुओं विशेषकर तेंदुओं और बाघों की भलाई में जुटे रहे। उनकी पुस्तक ‘टाइगर-टाइगर’ बेहद लोकप्रिय हुई जिसमें दुधवा के नरभक्षी बाघों का सजीव चित्रण है। बिली को चिडियाघरों में पैदा हुए या परित्यक्त वन्य प्राणियों को पाल-पोसकर बडा करने और फिर से वन्य जीवन में प्रविष्ट कराने की कला में महारत हासिल है।

लेख: अनिल डबराल
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, अप्रैल 14, 2012

गिर राष्ट्रीय उद्यान- एशियाई शेरों की शरणस्थली

एशियाई शेरों की अंतिम शरणस्थली के रूप में मशहूर गिरवन राष्ट्रीय उद्यान को देखने का अपना अलग रोमांच है। शेरों की मस्ती और दहाड से गूंजते गिर में वन्य जन्तुओं की एक सजीव दुनिया आबाद है। गुजरात के जूनागढ जनपद में स्थित गिर के हरे-भरे जंगल रहस्यमय लगते हैं और लहराती हुई हरियाली मन पर जादू सा असर छोड जाती है।
किसी जमाने में गिर के घने जंगल जूनागढ के नवाबों के प्रसिद्ध शिकारगाह थे। नवाब और उनके यार-दोस्तों में शेरों के शिकार की होड सी लगी रहती थी। बडी संख्या में शेरों का शिकार करने के कारण सन 1900 में यहां सिर्फ 100 शेर बचे थे। कहते हैं कि जूनागढ के नवाब के निमन्त्रण पर तत्कालीन भारत के वायसराय लार्ड कर्जन भी शेरों का शिकार खेलने के उद्देश्य से जूनागढ गये थे। इसी दौरान स्थानीय समाचार पत्र में एक गुमनाम पत्र छपा जिसमें लुप्तप्रायः शेरों के आखेट के औचित्य को चुनौती दी गई थी। इस पत्र को पढकर लार्ड कर्जन ने शिकार का इरादा बदल दिया और जूनागढ के नवाब से शेरों को संरक्षण देने का आग्रह किया। गिर के जंगलों में शेर एवं अन्य वन्य जन्तुओं के संरक्षण की कहानी यहीं से शुरू होती है।
गिर के संरक्षित वन 1412 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। सन 1969 में इसे अभयारण्य और 1975 में इसके 140 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया।
कब जायें: गिरवन जाने के लिये 15 अक्टूबर से 15 जून का समय उपयुक्त है। मानसून और वन्य प्राणियों के प्रजनन का समय होने के कारण उद्यान 15 जून से 15 अक्टूबर के बीच पर्यटकों के लिये बन्द रहता है।
कैसे जायें: गिरवन के लिये सडक, रेल और हवाई सेवा उपलब्ध है। निकटतम हवाई अड्डा केशोड यहां से मात्र 31 किलोमीटर दूर स्थित है। अहमदाबाद से केशोड के लिये विमान सेवा सुलभ है। अहमदाबाद, मेंडोर और जूनागढ से यहां के लिये रेल और सडक परिवहन की सुविधाएं सुलभ हैं। वेरावल और तलाला से भी सडक मार्ग द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है।
प्रमुख नगरों से दूरी: अहमदाबाद 408 किलोमीटर, जूनागढ 60 किलोमीटर, पोरबन्दर 185 किलोमीटर, भावनगर 250 किलोमीटर, वेरावल 42 किलोमीटर।
कहां ठहरें: गिरवन में रहने और खाने-पीने की उपयुक्त व्यवस्था है। दो वन विश्रामगृह और भारतीय पर्यटन विकास निगम के होटल में ठहरने की उत्तम व्यवस्था है।
क्या देखें: शेर गिरवन का पहला आकर्षण है। मई-जून से 56 विशेषज्ञों की एक समिति शेरों की गिनती में लगी है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस समय (1995 में) यहां 300 शेर तो हैं ही। सन 1968 की गणना में यहां 177 शेर थे जो 1974 में बढ कर 180, 1979 में 205, 1985 में 239 और 1990 की गणना में 284 तक पहुंच गये। भारत में गिरवन और अफ्रीका के जंगलों के अलावा ये शेर और कहीं नहीं पाये जाते। वन्य जन्तु विशेषज्ञ शेरों के लिये देश में एक और ठिकाने की तलाश कर रहे हैं। शेरों पर शोध कर रहे वन्य जन्तु संस्थान के रवि चेल्लम के अनुसार शेरों को एक ही जंगल में रखना खतरे से खाली नहीं है। कभी भी कोई बीमारी या प्राकृतिक आपदा उनका नाश कर सकती है। इससे उनके विलुप्त होने का संकट उत्पन्न हो जायेगा। वैसे भी गिर के जंगलों में शेरों के लिये जगह कम पड गई है और वे आरक्षित क्षेत्र से बाहर निकलकर आसपास के इलाकों में जाने लगे हैं।
हिरण्य नदी के तट पर स्थित गिरवन में पानी का शेर घडियाल प्रजनन केन्द्र भी है। यहां घडियालों के प्रजनन के समय से लेकर आठ वर्ष तक के होने तक की सभी गतिविधियां देखी जा सकती हैं। शेर और घडियालों के अतिरिक्त गिर के जंगलों में लकडबग्घा, सांभर, नीलगाय, चीतल, चौसिंगा, जंगली सुअर और कभी कभार तेंदुए भी देखे जा सकते हैं।


लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

मंगलवार, मार्च 13, 2012

श्री वेंकटेश्वर राष्ट्रीय उद्यान- पवित्र पहाडियों का उद्यान

आन्ध्र प्रदेश के दक्षिणी छोर पर तिरुमलै-तिरुपति की पवित्र पहाडियों के अंचल में स्थित श्री वेंकटेश्वर राष्ट्रीय उद्यान वन्य जंतु प्रेमियों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। पूर्वी घाट की इन छोटी पथरीली पहाडियों में भले ही बडे पेड और हरियाली का विराट साम्राज्य तो नहीं है, मगर वन्य जन्तुओं की विविधता की दृष्टि से यह किसी दूसरे राष्ट्रीय उद्यान से कम नहीं है। 

यह राष्ट्रीय उद्यान 352.62 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। पहले यह एक अभयारण्य था। तिरुपति जैसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थल के निकट होने के कारण इसे तिरुपति के मुख्य देवता श्री वेंकटेश्वर का नाम दिया गया। 

कब जायें: यूं तो श्री वेंकटेश्वर राष्ट्रीय उद्यान की सैर बरसात को छोडकर वर्ष पर्यन्त की जा सकती है, मगर अक्टूबर से मार्च का समय पर्यटन के लिये अधिक अनुकूल रहता है। वर्ष भर यहां ठण्ड नहीं पडती इसलिये सर्दियों में भी यहां गर्म कपडे ले जाने की जरुरत नहीं है। 

कैसे जायें: श्री वेंकटेश्वर राष्ट्रीय उद्यान पहुंचने के लिये निकटतम हवाई अड्डा और रेलवे स्टेशन तिरुपति है। तिरुपति चेन्नई, मुम्बई और हैदराबाद से सीधी विमान सेवाओं द्वारा जुडा हुआ है। देश के प्रायः सभी शहरों से इसका सडक सम्पर्क भी है। आन्ध्र प्रदेश पर्यटक विभाग की ओर से भी राज्य के महत्वपूर्ण शहरों से यहां के लिये टूरिस्ट बस सेवाएं सुलभ हैं। तिरुपति से भी श्री वेंकटेश्वर राष्ट्रीय उद्यान पहुंचने के लिये चंद्रगिरि होते हुए एक घण्टे से कम समय लगता है। 

प्रमुख नगरों से दूरी: चन्द्रगिरि 20 किलोमीटर, तिरुपति 31 किलोमीटर, चेन्नई 178 किलोमीटर, बंगलौर 252 किलोमीटर, मुम्बई 1183 किलोमीटर। 

कहां रहें: श्री वेंकटेश्वर राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के आवास के लिये वन विश्राम गृह की सुविधा सुलभ है। आन्ध्र प्रदेश पर्यटन विभाग के निकटतम गेस्ट हाउस चन्द्रगिरि और तिरुपति में हैं जहां वातानुकूलित कमरों की व्यवस्था है। इनके अतिरिक्त प्राइवेट होटल भी हैं। 

क्या देखे: यदि आप झाडदार वृक्षों का सौन्दर्य निहारने की चाह रखते हैं तो श्री वेंकटेश्वर नेशनल पार्क इसके लिये एक बेहतरीन जगह है। इस उद्यान में पेडों की बजाय रंग बिरंगी झाडियों का बाहुल्य है और पेडों की ऊंचाई आमतौर पर दस मीटर से अधिक नहीं है। रेड सेंडर यहां की मुख्य वृक्ष प्रजाति है जो आर्थिक दृष्टि से भी अधिक महत्वपूर्ण है। 

श्री वेंकटेश्वर राष्ट्रीय उद्यान अनेकानेक वन्य प्राणियों का घर है। बाघ और तेंदुए तो यहां हैं ही साथ ही हिरण, गौर, भालू, सूअर, लोमडी, भेडिया और जंगली कुत्ते भी यहां पर्याप्त संख्या में मौजूद हैं। स्वच्छंद विचरण करते चीतल, सांभर और काले हिरणों के झुण्ड देखने वालों का मन मोह लेते हैं। बंदरों की एक विशेष प्रजाति बोनिट भी यहां का एक अन्य आकर्षण है। 

श्री वेंकटेश्वर राष्ट्रीय उद्यान के इर्द-गिर्द अनेक दर्शनीय स्थल हैं। इनमें तिरुपति स्थित भगवान वेंकटेश्वर का सुप्रसिद्ध मन्दिर (31 किलोमीटर), चन्द्रगिरि दुर्ग (20 किलोमीटर), होर्सले हिल्स (175 किलोमीटर) और नारायणवनम (67 किलोमीटर) आपकी यात्रा को अविस्मरणीय और परिपूर्ण कर देंगे। 

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

सोमवार, मार्च 12, 2012

बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान- हरे वन और वन्य जन्तुओं का प्रदेश

बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान का नाम सुनते ही जेहन में एक चित्र सा उभर आता है जिसमें चारों ओर ऊंचे ऊंचे वृक्ष, लहराती घास और एक-दूसरे से गुंथी सघन झाडियां नजर आती हैं। नीलगिरि की नीली नीली पहाडियां और उनके बीच में कल कल का निनाद करते नदी नाले बह रहे होते हैं। इस वैविध्यपूर्ण जड-जगत को वन्य प्राणियों की गूंज और चहलकदमी और भी जीवन्त बना देती है। 

एक सा लगते हुए भी हर जंगल का अपना अलग व्यक्तित्व होता है। बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान का भी अपना एक खास व्यक्तित्व है जो वन्य पर्यटन की असीम सम्भावनाओं को समेटे हुए है। यहां चंदन, टीक और रोजवुड जैसी प्रजातियों के पेड हैं और बांस के कुंजों की भरमार है। प्रकृति की यह सघनता वन्य प्राणियों के फलने-फूलने के लिये स्वर्ग के समान है। 

बांदीपुर देश की बाघ परियोजनाओं में से एक है। यह कर्नाटक के दक्षिणी छोर पर स्थित प्राचीन अभयारण्य है। मैसूर के रियासती दौर में 1931 में तत्कालीन महाराजा मैसूर ने यहां के समृद्ध वन्य जीवन से प्रभावित होकर इस अभयारण्य की स्थापना की थी। स्वतंत्रता के पश्चात इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया। बांदीपुर कर्नाटक का पहला और सबसे बडा राष्ट्रीय उद्यान है। यह 874.20 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है।

कब जायें: पर्यटन प्रेमियों के लिये बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान सितम्बर से अप्रैल तक खुला रहता है और इस पूरे सीजन में यह देखने योग्य है। फिर भी वर्षा के बाद यानी सितम्बर से नवम्बर तक यह विशेष रूप से दर्शनीय हो जाता है। वर्षा के बाद हरीतिमा कई गुना बढ जाती है और मेघ रहित आकाश काफी नीला लगने लगता है। 

दिसम्बर से फरवरी के मध्य यहां सर्दी होती है। इस मौसम में हल्के गर्म कपडों की जरुरत पडती है। वसन्त के मौसम का भी अपना आनन्द है, जब जंगली फूलों की खुशबू से जंगल और जानवर मस्ती में झूमने लगते हैं। वृक्षों पर नई नई कोंपलें और फूल सजने लगते हैं जिससे सारा जंगल कभी हल्का गुलाबी, थोडा बैंगनी और कुछ कुछ नीला नजर आने लगता है। ऐसे खुशगवार मौसम में बांदीपुर की धरती स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति प्रदान करती है। 

कैसे जायें: निकटतम हवाई अड्डा बंगलुरू है, जो हैदराबाद, दिल्ली, चेन्नई, मदुरई, तिरुअनन्तपुरम, कोयम्बटूर, कोच्चि, मंगलौर, गोवा, पुणे और मुम्बई की वायुसेवा से जुडा है। निकटतम रेलवे स्टेशन चामराजनगर यहां से 53 किलोमीटर दूर है। वहां से बांदीपुर का सफर सडक मार्ग से तय किया जा सकता है। बांदीपुर स्टेट हाइवे से जुडा है। यहां दक्षिण भारत के सभी प्रमुख नगरों से सडक परिवहन के द्वारा पहुंचा जा सकता है। 

प्रमुख नगरों से दूरी: बंगलुरू 220 किलोमीटर, मैसूर 80 किलोमीटर, ऊटी 82 किलोमीटर, कोयम्बटूर 187 किलोमीटर, चेन्नई 569 किलोमीटर। 

कहां ठहरें: बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के आवास के लिये वन विश्राम गृह और कॉटेज की उचित व्यवस्था है। इसके लिये चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन अथवा फील्ड डाइरेक्टर प्रोजेक्ट टाइगर कार्यालय से अग्रिम आरक्षण करा लेना सुविधाजनक रहता है। 

क्या देखे: बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान अपने अंचल में कई प्रकार के पशु-पक्षियों को सहेजे हुए है। वनराज बाघ आकर्षण का केन्द्र है। बाघ के अलावा यहां तेंदुए भी हैं पर इनका दर्शन बडा ही दुर्लभ है। यहां हाथियों के कई जत्थे हैं, जो यत्र-तत्र भटकते हुए अक्सर पर्यटकों के सामने आ जाते हैं किंतु मनुष्य की दखलअंदाजी उन्हें जरा भी पसन्द नहीं है। पर्यटकों को हाथियों से दूर ही रहने की सलाह दी जाती है क्योंकि कई बार ये उग्र और हिंसक हो जाते हैं। चीतल, सांभर, काकड और चौसिंगा के झुण्ड प्रायः सब कहीं नजर आ जाते हैं। जंगली कुत्ते ‘धौर’ झुण्डों में रहते हैं। ये बडे आक्रामक और खतरनाक होते हैं। 

बांदीपुर का एक और खास आकर्षण है- गौर। यह विशालकाय शाकाहारी जीव यहां घास के मैदानों में चरते समय बेहद चित्ताकर्षक लगते हैं। रीछ, गिलहरी, लंगूर और अन्य अनेक प्रकार के छोटे जीव-जन्तु सतर्कतापूर्वक विचरण करते हुए नजर आते हैं। यहां कई किस्मों की मछलियां, सांप और नागराज भी मिलते हैं। पक्षियों में तीतर, बटेर, पी-फाउल, धनेश और हरे कबूतर के साथ ही दर्जनों प्रकार के रंग बिरंगे पंछी हैं, जो पर्यटकों के स्वागत में हमेशा चहकते रहते हैं। 

बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान में भ्रमण के लिये सफारी वाहन, प्रशिक्षित हाथी और मार्ग निर्देशकों की अच्छी व्यवस्था है, जो आपके सफर को अविस्मरणीय बना देते हैं। 

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित) 
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, मार्च 11, 2012

मैरीन नेशनल पार्क- समुद्र की निराली जीव सृष्टि

अरब सागर की गोद में प्रवाल (मूंगा) द्वीपों का एक विस्तृत दयार है अंडमान निकोबार। छोटे बडे आकार के इन द्वीप समूहों का प्राकृतिक सौन्दर्य, प्रदूषण मुक्त निर्मल समीर, नारियल के वृक्षों से आच्छादित जमीन, साफ-सुथरे समुद्री तट, मूंगे की चट्टानों से घिरी नीली झीलें और उनमें तैरती असंख्य प्रजातियों की रंगबिरंगी मछलियां सुन्दरता में चार चांद लगा देती हैं। इसी नैसर्गिक वातावरण के बीच स्थित अंडमान का सुप्रसिद्ध मैरीन नेशनल पार्क देश-विदेश के सैलानियों को अपनी ओर खींच लेता है। 

समुद्र के जल में जो जीव सृष्टि है वह धरातल के प्राणियों से कम सुन्दर और आकर्षक नहीं। इस बात का एहसास वंडूर स्थित मैरीन नेशनल पार्क में पहुंचते ही हो जाता है। लाब्रेंथ द्वीप समूह और उससे जुडे समुद्र में पसरा मैरीन नेशनल पार्क दक्षिणी अंडमान के पश्चिमी तट पर स्थित है। क्षेत्रफल (281.5 वर्ग किलोमीटर) की दृष्टि से यह अंडमान के छह राष्ट्रीय उद्यानों मंज सबसे बडा है। 

कब जायें: दिसम्बर से अप्रैल का समय मैरीन नेशनल पार्क की सैर के लिये सर्वोत्तम है। इस दौरान यहां मौसम खुशगवार और पर्यटन के लिये उपयुक्त होता है। 

कैसे जायें: देश की मुख्य भूमि से वायु मार्ग अथवा जलमार्ग से अंडमान निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर पहुंचकर मैरीन नेशनल पार्क जाया जा सकता है। इंडियन एयरलाइंस की कोलकाता और चेन्नई से पोर्ट ब्लेयर के लिये नियमित उडानें हैं। दो सप्ताह में एक बार दिल्ली से भुवनेश्वर होते हुए भी पोर्ट ब्लेयर की हवाई यात्रा की जा सकती है। 

कोलकाता, चेन्नई और विशाखापटनम से शिपिंग कारपोरेशन ऑफ इण्डिया के समुद्री जहाजों के जरिये भी आप अंडमान पहुंच सकते हैं। इसके लिये अग्रिम आरक्षण की व्यवस्था है। विदेशी पर्यटकों के लिये अंडमान की सैर के लिये विशेष अनुमति पत्र लेना अनिवार्य है। पोर्ट ब्लेयर से मैरीन नेशनल पार्क के भ्रमण के लिये अण्डमान निकोबार पर्यटन विभाग की ओर से मोटर बोट और लांच की समुचित व्यवस्था है। 

प्रमुख नगरों से दूरी: पोर्ट ब्लेयर 20 किलोमीटर, विशाखापत्त्नम 1220 किलोमीटर, चेन्नई 1153 किलोमीटर, कोलकाता 1300 किलोमीटर। 

कहां रहें: वंडूर स्थित वन विश्राम गृह ठहरने के लिये एक उपयुक्त जगह है। यदि आप नारियल के पत्तों से बनी निकोबारी झोंपडी में रहने का लुत्फ लेना चाहते हैं तो पोर्ट ब्लेयर स्थित मेगापोड नेस्ट में ठहर सकते हैं। अण्डमान बीच रिसॉर्ट में भी ठहरने की उत्तम व्यवस्था है। अण्डमान में दक्षिण भारतीय एवं समुद्री मछलियों से निर्मित स्वादिष्ट व्यंजन पर्यटकों को बेहद पसन्द आते हैं। 

क्या देखे: मैरीन नेशनल पार्क की सीमा में 15 छोटे-छोटे प्रवाल द्वीपों का एक समूह है। लाब्रेंथ द्वीप समूह के नाम से प्रसिद्ध ये द्वीप आकार में जितने छोटे हैं उतने ही आकर्षक भी हैं। लाब्रेंथ द्वीप प्रकृति की एक अदभुत कृति हैं। यह आश्चर्य की बात है कि इनका निर्माण सामान्य धरती की तरह नहीं हुआ बल्कि इन्हें समुद्री जीव मूंगों (कोरल) ने बनाया है। 

मूंगे की चट्टानों की रचना के सम्बन्ध में अनेक सिद्धान्त प्रचलित हैं। इनमें चार्ल्स डार्विन की अवधारणा सबसे अधिक मान्य है। चार्ल्स डार्विन ने सन 1842 में कहा था कि एक ज्वालामुखी के शान्त होने के परिणामस्वरूप तटीय प्रवाल भित्ति का निर्माण हुआ और उसके लगातार अवतलन के कारण यह भाग ऊपर उठा। जब ज्वालामुखी पूरी तरह शान्त हो गया तो प्रवाल द्वीप अस्तित्व में आये। इनमें कई लगून (मूंगे की चट्टानों से घिरी झील) बने। प्रवाल द्वीपों पर सबसे पहले रेत टीले के रूप में जमा हुई। पक्षियों की बीट से यह जमीन उपजाऊ बनी और भूमि पर वनस्पति का उगना सम्भव हुआ। मैरीन नेशनल पार्क में समुद्री जीव मूंगे अथवा कोरल की यह अदभुत कारीगरी देखकर आप दंग रह जायेंगे। पानी में उतरकर आप एक विशेष यन्त्र से जीवित मूंगों को भी देख सकते हैं। 

मूंगों के साथ ही पानी में तैरती विभिन्न प्रजातियों की मछलियां देखकर भी आप जरूर रोमांचित हो उठेंगे। तुना, सारडिनी, एंचोव, बर्राकुडा, मुल्लेट, मैकिरिल, पोमफ्रिट, झींगा और हिल्सा यहां पाई जाने वाली मछलियों की कुछ प्रजातियां हैं। 

लाब्रेंथ द्वीप समूह के तटीय क्षेत्र समुद्री कछुओं के प्रजनन की भूमि है। यहां पांच प्रजातियों के समुद्री कछुए पाये जाते हैं। वाटर मोनिटर, छिपकलियां, जंगली सूअर, समुद्री सांप, लॉबस्टर, केकडा (क्रैब), घोंघा (आइस्टर) और समुद्री सांपों की कई प्रजातियां यहां देखी जा सकती हैं। समुद्री जीव जन्तुओं के साथ ही मैरीन राष्ट्रीय उद्यान अनेक दुर्लभ पक्षी प्रजातियों का भी डेरा है। इनमें निकोबारी कबूतर और समुद्री गरुड जैसे दुर्लभ पक्षी शामिल हैं। 

कुल मिलाकर अण्डमान स्थित मैरीन नेशनल पार्क पर्यटन की दृष्टि से पूरी तरह विकसित है। यहां समुद्री जीव जन्तुओं के अवलोकन के साथ ही कार्वोनस कोव बीच में स्नान और तैराकी का भी मजा लूट सकते हैं। ताड और नारियल के वृक्षों से आच्छादित द्वीप समूहों की यह धरती प्रकृति प्रेमी पर्यटकों के लिये एक शानदार जगह है। 

मैरीन नेशनल पार्क के साथ ही आप अण्डमान की सैर भी कर सकते हैं। इनमें चिरैया टापू, माउंट हैरियट, वाइपर आइलैण्ड, चाथम द्वीप, सिप्पीघाट फार्म, रॉश आइलैण्ड और ऐतिहासिक सेल्यूलर जेल आदि दर्शनीय जगहें आसपास ही हैं। अण्डमान प्रशासन और स्थानीय लोग अपने पर्यावरण संरक्षण के प्रति बेहद सजग हैं। वे यहां पर्यटन गतिविधियों को सीमित रखना चाहते हैं। यही वजह है कि जब आप अण्डमान के खूबसूरत समुद्री तटों की सैर करते हुए मूंगे का कोई टुकडा उठा लेते हैं तो यकीन कीजिये आपका गाइड जरूर यही कहेगा कि, ‘प्लीज थ्रो दी कोरल पीसेज बैक इन टू दि सी।’ 

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शनिवार, मार्च 10, 2012

वन्य पर्यटन- कुछ उपयोगी सुझाव

वन्य पर्यटन अथवा राष्ट्रीय उद्यानों में सैर सपाटा काफी लोकप्रिय होता जा रहा है। जंगलों की सैर हमें प्रकृति के करीब ले आती है। वन्य जन्तुओं की बहुरंगी दुनिया में पहुंचकर एक नवीन ताजगी का एहसास होता है और अपनी सारी थकान मिटाकर हम खुद को फिर से तैयार कर लेते हैं जीवन की संघर्षमय यात्रा के लिये। 

सामान्य पर्यटन से कई मायनों में अलग है- वन्य पर्यटन। जंगलों में स्वच्छंद विचरण करते पशु-पक्षियों को करीब से देखना बेहद रोमांचक और थोडा जोखिमभरा काम है। अपनी तथा दुर्लभ वन्य जन्तुओं की सुरक्षा के लिये राष्ट्रीय उद्यानों में घूमते-फिरते समय कुछ हिदायतों का पालन करना बेहद जरूरी है। वन-यात्रा के दौरान नीचे दिये गये सुझावों को ध्यान में रखें, तभी आप अपनी यात्रा का भरपूर लुत्फ उठा पायेंगे।

- देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित राष्ट्रीय उद्यानों में भ्रमण के लिये मौसम के अनुरूप स्थल का चयन कीजिये। मसलन गर्मी के मौसम में पर्वतीय क्षेत्रों में स्थित राष्ट्रीय उद्यानों का भ्रमण ज्यादा उपयुक्त रहता है।  
- राष्ट्रीय उद्यान अथवा अभयारण्यों में जाने से पूर्व अपने आवास का अग्रिम आरक्षण सुनिश्चित कर लें।
- अभयारण्यों अथवा राष्ट्रीय उद्यानों में आग्नेय हथियार ले जाना निषिद्ध है, भले ही आपके पास अपने हथियार का लाइसेंस ही क्यों न हो।
- राष्ट्रीय उद्यानों में साइकिल, स्कूटर, मोटर साइकिल, थ्री व्हीलर जैसे वाहनों से घूमने का इरादा छोड दें। इन वाहनों को उद्यान क्षेत्र में ले जाने की अनुमति नहीं है।
- यदि आप पार्क का भ्रमण अपनी कार से करना चाहते हैं तो वाइल्ड लाइफ वार्डन से अनुमति लेने के बाद अपने साथ प्रशिक्षित मार्गदर्शक (गाइड) ले जाना न भूलें।
- कार से पार्क में भ्रमण के समय खिडकियों के शीशे ऊपर चढा लें। हॉर्न न बजायें। जंगल में वाहन से नीचे बिल्कुल न उतरें। वहां पैदल घूमना खतरनाक हो सकता है।
- उद्यानों में रात्रि के समय वाहन चलाने तथा हैड लाइट जलाने की अनुमति नहीं है।
- राष्ट्रीय उद्यानों में डीजल से चलने वाले वाहनों का प्रवेश निषिद्ध है।
- अधिकांश राष्ट्रीय उद्यानों में सडकें कच्ची, ऊबड-खाबड एवं धूल से भरी हैं, इसलिये अपने साथ गीले पेपर, नैपकिन अथवा हाथ के तौलिये अवश्य रखें।
- अपने पालतू जानवरों को घर पर ही रखें। राष्ट्रीय उद्यानों में इन्हें ले जाने की अनुमति नहीं है।
- जंगली जानवरों को किसी भी प्रकार के खाद्य पदार्थ खिलाने का प्रयास न करें। ऐसा करना जुर्म है।
- रेडियो, ट्रांजिस्टर, टेप अथवा संगीत वाद्य यंत्रों को उद्यान क्षेत्र में बजाने की अनुमति नहीं है। दरअसल इन्हें बजाने से जंगली जानवरों की शान्ति में खलल पडता है।
- अभयारण्यों में भ्रमण के दौरान जहां तक सम्भव हो सके, बीडी, सिगरेट अथवा सिगार आदि न पीएं। माचिस की जलती हुई तीली अथवा बीडी-सिगरेट के जलते हुए टुकडे से जंगल में आग लग सकती है।
- यदि आप राष्ट्रीय उद्यान में फोटोग्राफी अथवा फिल्मांकन करना चाहते हैं तो सम्बन्धित अधिकारी से लिखित अनुमति प्राप्त करें। याद रखिये, पार्क क्षेत्र में आप फ्लैश लाइट का प्रयोग नहीं कर सकते, इसलिये अपने साथ उच्च गति (हाई स्पीड) फिल्में ले जायें।
- उद्यान में किसी भी किस्म के भुगतान की रसीद अवश्य ले लें।
- राष्ट्रीय उद्यानों में भ्रमण के लिये सम्भवतः हाथी ही सबसे उपयुक्त सवारी है। देश के अनेक राष्ट्रीय उद्यानों में पर्यटकों को पार्क में घुमाने के लिये हाथियों की व्यवस्था है। इस सुविधा का उपयोग करें। खासतौर पर बच्चों को तो हाथियों से सैर जरूर करायें।
- जहां तक सम्भव हो सके, जंगल में तडक-भडक वाले रंगीन कपडे न पहनें। खाकी, भूरा, बादामी, सलेटी, कत्थई अथवा धानी रंग वन-भ्रमण के लिये उपयुक्त है। तेज रंग के कपडों को देखकर जानवर चौंक उठते हैं और दूर भाग जाते हैं।
- जूते और कपडे ऐसे हों, जिन्हें पहनकर दूर तक चला या दौडा जा सके।
- राष्ट्रीय उद्यानों की झील, नदी अथवा तालाब आदि में तैरने की चेष्टा न करें।
- अपने साथ दूरबीन भी ले चलें, जानवरों के निरीक्षण के लिये यह एक उपयोगी यंत्र है।
- वन्य-प्राणियों की अलार्म कॉल सुनें। उनकी आवाज से अंदाजा लगायें कि वे किस जगह पर मौजूद हैं और उनका मूड कैसा है। - जानवरों के पैर अथवा खुरों के निशान से भी पता लगाया जा सकता है कि जानवर उस क्षेत्र से कब गुजरे और अब वे कहां होंगे।
- वन-भ्रमण को जाते समय अपने साथ पर्याप्त मात्रा में पीने का पानी रखना न भूलें।
- वन्य जन्तुओं को देखने का सबसे उपयुक्त समय प्रातः और सायंकाल है।
- जल-स्रोतों के इर्द-गिर्द बने मचानों से भी जंगली जानवरों को देखने का आनन्द लिया जा सकता है।
- अनेक राष्ट्रीय उद्यानों में पर्यटकों को वन्य जीवन से सम्बन्धित स्लाइड एवं फिल्में दिखाने की व्यवस्था रहती है। ऐसे शो अवश्य देखें।
- चिप्स, पान मसाला के रैपर या प्लास्टिक की थैलियों को जंगल में न फेंकें।
- राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य बस्ती से दूर स्थित होते हैं। हो सकता है कि जरुरत पडने पर आपको डाक्टर उपलब्ध न हो सके, इसलिये छोटी मोटी दवाईयां जैसे क्रोसीन, एस्पिरीन, इलैक्ट्रोल, पुदीन हरा, एंटीसेप्टिक क्रीम, बैंडेज, आयोडेक्स वगैरह अपने साथ रख लें।
- हाथी के हौदे से या अपने वाहनों से पार्क का चक्कर लगाकर वन्य प्राणियों को देखने वालों में अधिकांश की रुचि मात्र शेर या बाघ को देखने में ही होती है और यदि ये नजर न आयें तो पार्क बेकार! लेकिन यह धारणा ठीक नहीं है। याद रखिये अभयारण्य चिडियाघर नहीं है, जहां छोटे से बाडे में आपको शेर या अपना मनपसन्द जानवर चहलकदमी करता हुआ मिल जायेगा। भई, जंगल का शेर तो अपनी मर्जी का मालिक है। उसे आपके आने अथवा न आने से क्या! धैर्य रखिये और शेर की तलाश में घूमते हुए पेड-पौधों, नदी-नालों और दर्जनों किस्म के पंछियों के सौन्दर्य का अवलोकन करते रहिये।
- बडे राष्ट्रीय उद्यानों में भ्रमण के लिये कम से कम दो दिन का समय अवश्य रखें। अपनी यात्रा से बहुत अधिक अपेक्षा न रखें। यदि आप ऐसा समझते हैं कि उद्यान में मौजूद सभी प्रजातियों के पशु-पक्षी आपको एक ही दिन में नजर आ जायेंगे तो निराशा हाथ लगना निश्चित समझिये। अवश्य ही अधिक से अधिक जानवर देखने की आशा रखें, किन्तु यदि किसी वजह से यह उम्मीद पूरी न हो तो इसको सामान्य लें।
- जब कभी भी आप राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्य की सैर से लौटें तो वहां से कुछ ज्ञान लेकर आयें। अपने मित्रों और परिचितों में अपना अनुभव बांटे। उन्हें वन्य जन्तुओं के संरक्षण के लिये प्रेरित करें।

लेख: अनिल डबराल (26 नवम्बर 1995 को हिन्दुस्तान में प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

शुक्रवार, मार्च 09, 2012

महावीर राष्ट्रीय उद्यान- बगैर इसके अधूरी है गोवा यात्रा

यदि किसी से यह पूछा जाये कि खूबसूरत समुद्री तट, मशहूर गिरजाघर, प्राचीन दुर्ग, मन्दिर और जल-प्रपातों के अतिरिक्त ऐसी कौन सी जगह है जिसे देखे बगैर गोवा की यात्रा पूरी नहीं होती तो यकीनन वह जगह भगवान महावीर नेशनल पार्क ही होगी। गोवा के पूर्वी छोर पर स्थित इस नन्हे से राष्ट्रीय उद्यान में प्रकृति की सुन्दरता को उसके सर्वोत्तम रूप में निहारने का जो सुख मिलता है उसे यहां की सैर से ही महसूस किया जा सकता है। 

घने पेडों की छतरी ओढे गोवा का यह इलाका सन 1961 में भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बनने से पूर्व पुर्तगाली उपनिवेशी शासकों का पसंदीदा शिकारगाह था। मनोरंजन के नाम पर यहां निरीह वन्य प्राणियों का जमकर शिकार किया गया। उपनिवेशी शासन से मुक्ति के बाद सन 1967 तक यहां एक अभयारण्य की स्थापना की गई, जिसे मोलम अभयारण्य का नाम दिया गया। सन 1978 में इसी के एक हिस्से में 107 वर्ग किलोमीटर भू-क्षेत्र में राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना की गई। मोलम अभयारण्य का क्षेत्रफल 255 वर्ग किलोमीटर है। इस अभयारण्य का नाम गोवा के प्रस्तावित राष्ट्रीय उद्यानों में दर्ज है। बहरहाल भगवान महावीर राष्ट्रीय उद्यान और मोलम अभयारण्य दोनों एक दूसरे की सीमा से लगे हुए हैं। 

कब जायें: पश्चिमी घाट की पहाडियों और अरब सागर के खूबसूरत समुद्री तटों से घिरे गोवा में वर्ष के हर मौसम का अपना आकर्षण है। फिर भी राष्ट्रीय उद्यान की सैर के लिये अक्टूबर से मार्च का मौसम सुखद और मनोरम होता है। 

कैसे जायें: गोवा का मुख्य हवाई अड्डा डेबोलिम है जो राष्ट्रीय उद्यान से 80 किलोमीटर की दूरी पर है। डेबोलिम भारत के विभिन्न शहरों से हवाई उडानों से जुडा हुआ है। महावीर राष्ट्रीय उद्यान निकटवर्ती रेलवे स्टेशन कोलम से सिर्फ 5 किलोमीटर के फासले पर है। बंगलौर, बेलगांव, मुम्बई, मिराज, मैसूर, पुणे आदि स्थानों से नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं। 

प्रमुख नगरों से दूरी: पोंडा 29 किलोमीटर, पणजी 58 किलोमीटर, पुणे 401 किलोमीटर, बंगलौर 534 किलोमीटर, मुम्बई 643 किलोमीटर, हैदराबाद 700 किलोमीटर, दिल्ली 1555 किलोमीटर। 

कहां रहें: महावीर राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के आवास के लिये वन विश्राम गृह और पर्यटक कुटीर की समुचित व्यवस्था है। राष्ट्रीय उद्यान के बाहर गोवा के विभिन्न उपनगरों में भी पर्यटकों के ठहरने के लिये पांच सितारा सुविधाओं से लैस होटलों से लेकर बजट में भी बिस्तर पा जाने की सुविधाएं उपलब्ध है। 

क्या देखें: पश्चिमी घाट की पहाडियों और हरे-भरे पेडों से परिपूर्ण भगवान महावीर राष्ट्रीय उद्यान के प्राकृतिक माहौल में जंगली जानवरों को देखना बेहद मनोरंजक है। पर्यटक उद्यान में तेंदुआ, हाथी, भालू और हिरण की कई प्रजातियां देख सकते हैं। जंगल में निर्भय विचरण करती जंगली बिल्लियां भी सुगमता पूर्वक नजर आ जाती हैं। ये घरेलु बिल्लियों से कुछ बडी तथा डरावनी शक्ल वाली होती हैं। उडने वाली गिलहरियां भी भगवान महावीर राष्ट्रीय उद्यान के आकर्षण में शामिल हैं। 

लेख: अनिल डबराल (हिन्दुस्तान में 26 नवम्बर 1995 को प्रकाशित)
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

गुरुवार, मार्च 08, 2012

घाना राष्ट्रीय पक्षी उद्यान- पंख-पखेरुओं का संसार

कुदरत ने हमें पंख-पखेरुओं का एक विचित्र और कौतुहल भरा संसार प्रदान किया है। आज दुनिया में पक्षियों की अनेक नस्लें समाप्त हो चुकी हैं। कुछ पक्षी प्रजातियां समाप्ति के कगार पर हैं और कुछ पंछी जीवन संघर्ष करते हुए इतनी कम तादाद में बचे हैं कि उनको देख पाना भी मुश्किल हो गया है। पक्षियों के संरक्षण के लिये अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास शुरू हो चुके हैं। भारत में इस समय कई पक्षी विहार हैं। राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित केवलादेव घाना राष्ट्रीय पक्षी उद्यान भी एक ऐसा ही प्रसिद्ध पक्षी विहार है जहां अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग से लुप्तप्राय पक्षियों की वंशवृद्धि के प्रयास किये जा रहे हैं। 

रियासती दौर में भरतपुर के ये जंगल शाही शिकारगाह थे। भरतपुर नरेश स्वयं अपने और अपने खास मेहमानों के मनोरंजन के लिये यहां आते थे। उन दिनों पक्षियों के शिकार का शौक इस कदर बढ गया था कि सन 1927 में महाराज अलवर के आगमन पर आयोजित शिकार में यहां 1453 पक्षी गोलियों से भूने गये। सन 1936 में वायसराय लार्ड लिनालिथगो के हाथों 1415 पक्षी शहीद हुए और सन 1938 में इसी वायसराय के आगमन पर यहां सिर्फ एक ही दिन में 4273 परिंदों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया गया। 

बहरहाल 13 मार्च 1965 से यहां पशु-पक्षियों के शिकार पर रोक लगाई गई और इसे राष्ट्रीय पक्षी विहार घोषित कर दिया गया। 29 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला यह उद्यान जल पक्षियों का स्वर्ग है। पार्क के 11 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में उथली झीलें हैं जिनमें जलीय परिंदों के लिये तरह तरह की मछलियां तथा ‘ट्यूबर्स’ व ‘सेसेज’ नामक घास पर्याप्त मात्रा में मौजूद रहती है। 

कब जायें: अगस्त से मार्च के मध्य का समय घाना राष्ट्रीय उद्यान के भ्रमण के लिये सबसे उपयुक्त है। अगस्त से नवम्बर का समय अधिकांश पक्षियों का प्रजनन का समय होता है। अतः पक्षियों के नीड निर्माण और विभिन्न प्रजनन क्रियाओं के निरीक्षण के लिये यह समय उपयुक्त है। यदि आपकी रुचि प्रवासी पक्षियों में है तो आपको नवम्बर से मार्च के बीच यहां जाना चाहिये। 

कैसे जायें: भरतपुर स्थित केवलादेव घाना राष्ट्रीय उद्यान भारतीय पर्यटन के मशहूर गोल्डन ट्रैंगल यात्रापथ पर स्थित है। यहां पहुंचने के लिये हवाई अड्डा है। दिल्ली से मुम्बई जाने वाली प्रायः सभी रेलगाडियां भरतपुर होकर जाती हैं और यहां ठहरती हैं। दिल्ली, आगरा, मथुरा और जयपुर से यहां पहुंचने के लिये हर प्रकार की सडक परिवहन सुविधाएं सुलभ हैं। 

प्रमुख नगरों से दूरी: दिल्ली 175 किलोमीटर, मुम्बई 1260 किलोमीटर, आगरा 56 किलोमीटर, जयपुर 176 किलोमीटर, लखनऊ 419 किलोमीटर।

कहां ठहरें: राजस्थान पर्यटन का विश्राम गृह सारस, शान्ति कुटीर और भारतीय पर्यटन विकास निगम के फॉरेस्ट लॉज के अतिरिक्त भरतपुर में ठहरने के लिये कई अच्छे होटल हैं। आप चाहें तो स्थानीय लोगों के बीच पेइंग गेस्ट के रूप में भी ठहर सकते हैं। 

क्या देखें: घाना पक्षी उद्यान में 352 प्रजातियों के पक्षी पाये जाते हैं। इनमें 232 स्थानीय और 120 प्रवासी हैं। स्थानीय पक्षी पूरे वर्ष इस उद्यान अथवा इसके इर्द-गिर्द के इलाकों में निवास करते हैं जबकि प्रवासी पक्षी शीतकाल में यहां अपना डेरा जमा लेते हैं। 

सूर्योदय के समय झील के किनारे पहुंचकर पंछियों को निहारना अपने आप में एक सुखद अनुभव है। सरोवर के बीच में छोटे छोटे भूखण्ड, चट्टानों और पेडों पर सैकडों पंछी बैठे हुए नजर आते हैं। पक्षियों का कलरव, आकाश में उडान और नोंक-झोंक बहुत अच्छा लगता है। पार्क में जगह जगह वाच टावर भी हैं जहां से आप पक्षियों की विभिन्न गतिविधियों को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। विहंगावलोकन का सर्वोत्तम समय प्रातः और सायंकाल है। सुबह होते ही पक्षी अपनी मधुर स्वरलहरियों के बीच भोजन की तलाश में जुट जाते हैं और सायंकाल को अपने नीडों में लौटते समय झुंड के झुंड आकाश में उडानें भरते रहते हैं। 

यहां पाये जाने वाले विशिष्ट पक्षियों में बुज्जा (आइविस), जांघिल (पेंटेड स्टार्क), कलहंस (गीज), चेती (टील), बगुले (इग्रेट), हेरन, कोमोरेट, टिकरी, पनकौवा, बुलबुल, राजहंस, सोन चिडिया, तीतर, बटेर, क्रोंच, बाज, सारस, रोजी पास्टर, स्नेक बर्ड, गोल्डन प्लोवर, सारिका, पपीहा, स्ट्रा, ओपनबिल, स्पूनबिल, परपल, कूटस, पिनटेल, पोचर्ड आदि प्रमुख हैं। गाइड की मदद से आप इन पक्षियों की पहचान कर सकते हैं। 

किन्तु घाना का मुख्य आकर्षण है साइबेरियाई क्रेन। सफेद रंग के ये सारस मध्य साइबेरिया से करीब छह हजार किलोमीटर की यात्रा के बाद यहां पहुंचते हैं। साइबेरियाई सारस एक दुर्लभ पक्षी है। पूरी दुनिया में इनकी गिनती घटकर 350 से भी कम हो चुकी है। एक अर्से पहले तक ये सैकडों की तादाद में घाना पहुंचते थे। सन 1967 में इनकी संख्या 200 दर्ज की गई थी किन्तु पिछले कुछ वर्षों से यह संख्या निरन्तर घटती जा रही है। पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि प्रवास के दौरान जब ये सारस अफगानिस्तान और पाकिस्तान की झीलों में रुकते हैं तो वहां शिकारी इन्हें मार डालते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय क्रेन फाउंडेशन इनके संरक्षण के लिये पूरी तन्मयता से जुडा हुआ है। इसके अन्तर्गत कृत्रिम रूप से सेह कर पैदा किये साइबेरियन सारस के बच्चों को घाना लाना और इनके पैरों पर ट्रांसमीटर लगाकर उपग्रह के जरिये इनकी निगरानी करना शामिल है। साइबेरियन क्रेन भारतीय बगुले से काफी मिलते-जुलते हैं। अन्तर इतना है कि इनकी चोंच और टांगें गुलाबी रंग की होती हैं। उडान के समय फैलाये पंखों के नीचे काले धब्बे दिखाई देते हैं। दरअसल उडान के समय इन्हें पहचानने का यही मुख्य लक्षण है। घाना का महत्व इसलिये भी बढ जाता है क्योंकि पूरे दक्षिण एशिया में साइबेरिया के सफेद सारसों का यही एकमात्र शीतकालीन बसेरा है। 

रंग बिरंगी चिडियों के साथ ही यहां चीतल, सांभर, नीलगाय, लोमडी, गीदड आदि वन्य जन्तुओं को भी विचरण करते हुए देखा जा सकता है। हिरणखुरी के पास अजगरों की गुफाएं हैं। यहां अजगरों को देखने के लिये पर्यटकों की खूब भीड जमा रहती है। अपनी किस्म के इस अनूठे पक्षी विहार में रंग-बिरंगी चिडियों की चहचाहट के साथ ही हर सुबह पर्यटकों की चहलकदमी भी शुरू हो जाती है। यहां आने वाले पक्षी प्रेमियों की संख्या हर वर्ष बढती जा रही है। 

लेख: अनिल डबराल 
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

बुधवार, मार्च 07, 2012

कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान- वन फूलों से महकता हसीन उद्यान

हिमाच्छादित पहाडियों, हरी-भरी घाटियों, इठलाती-बलखाती नदियों, जंगली फूलों और ऊंचे दरख्तों के इर्द-गिर्द मंडराते वन्य प्राणियों की एक जीवन्त दुनिया का नाम है- कंचनजंगा (स्थानीय नाम: खंग-चंग जौंगा) नेशनल पार्क। 

सिक्किम के उत्तरी छोर पर स्थित इस राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना सन 1977 में की गई। यह 850 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। प्रकृति की अपूर्व छटा से परिपूर्ण इस राष्ट्रीय उद्यान में 47 अत्यन्त संकटापन्न जातियों के पशु-पक्षी निवास करते हैं। कुदरत ने इस स्थल को बडी खूबसूरती से संवारा है। 

इस राष्ट्रीय उद्यान का नामकरण हिमालय की तीसरी सबसे ऊंची पर्वत चोटी कंचनजंगा के नाम पर किया गया है, जो इसी क्षेत्र में है। प्रतिबन्धित क्षेत्र होने के कारण विदेशी पर्यटकों के लिये फिलहाल कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश की अनुमति नहीं है। 

कब जायें: उपयुक्त मौसम की दृष्टि से कंचनजंगा नेशनल पार्क की सैर के लिये अक्टूबर से दिसम्बर तथा फरवरी से मई का समय सबसे उपयुक्त है। यहां की जलवायु ठण्डी है। इसलिये यात्रा के लिये पर्याप्त गरम कपडे ले जाने चाहिये। 

कैसे जायें: निकटतम हवाई अड्डा बागडोगरा है जो दिल्ली, गुवाहाटी और कोलकाता से नियमित वायु सेवा से जुडा हुआ है। रेल से आने वाले यात्रियों के लिये न्यू जलपाईगुडी निकटतम रेलवे स्टेशन है। देश के प्रायः सभी मुख्य मार्गों से रेलें न्यू जलपाईगुडी आती हैं। यहां से थोडी ही दूरी पर स्थित सिलिगुडी से सिक्किम राज्य परिवहन की बसों, प्राइवेट टैक्सियों से गंगटोक आना चाहिये। वहां से कंचनजंगा पहुंचने के लिये राज्य पर्यटन विभाग की ओर से टूरिस्ट कार की व्यवस्था है। इसके अलावा प्राइवेट टैक्सियां भी हमेशा उपलब्ध रहती हैं। 

महत्वपूर्ण नगरों से दूरी: गंगटोक 98 किलोमीटर, न्यू जलपाईगुडी 221 किलोमीटर, बागडोगरा 222 किलोमीटर, गुवाहाटी 722 किलोमीटर, कोलकाता 818 किलोमीटर, दिल्ली 1724 किलोमीटर। 

कहां रहें: कंचनजंगा नेशनल पार्क में ठहरने के लिये छोटे-छोटे और खूबसूरत वन विश्राम गृह बने हुए हैं। इनमें अधिकतम 16 व्यक्तियों के लिये आवासीय सुविधाएं उपलब्ध है। इसके लिये सहायक वन्य जन्तु अधिकारी कार्यालय से आरक्षण करा लेना चाहिये। 

क्या देखें: प्रकृति प्रेमी पर्यटकों के लिये स्वर्ग के समान सुन्दर इस उद्यान में हिम तेंदुआ, बादली तेंदुआ, लाल पांडा, थार, कस्तूरी मृग, भरल, थाकिन, घूरल, सीरो और जंगली गधे जैसी अत्यन्त दुर्लभ वन्य प्रजातियां अपने प्राकृतिक रूप में देखी जा सकती हैं। पार्क की सैर के दौरान भालुओं से भी आपकी मुलाकात हो सकती है। 

कंचनजंगा नेशनल पार्क में ऊंचाई पर निवास करने वाली अत्यन्त खूबसूरत और दुर्लभ प्रजातियों के मोनाल, टूगोपान और हिममुर्गी जैसे बडे पंछी भी निवास करते हैं। इन रंग-बिरंगी पक्षियों की एक झलक मात्र से यहां की यात्रा सार्थक हो जाती है। 

लेख: अनिल डबराल 
सन्दीप पंवार के सौजन्य से

रविवार, फ़रवरी 12, 2012

गन्धर्वसेन मन्दिर- चूहा करता है नाग की परिक्रमा

मध्य प्रदेश के देवास के नजदीक प्राचीन और ऐतिहासिक नगरी है- गन्धर्वपुरी। गन्धर्वसेन की इस नगरी में एक मन्दिर है जिसे गन्धर्वसेन मन्दिर के नाम से जाना जाता है। इसका अपना अलग ही ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है। इससे कई चमत्कार भी जुडे हुए हैं। मन्दिर के गुम्बद के नीचे एक ऐसा स्थान है, जिसके बीचोंबीच पीले रंग का एक इच्छाधारी नाग अपना स्थान ग्रहण करता है। इसके चारों ओर ढेर सारे चूहे परिक्रमा करते हैं। ऐसा क्यों होता है, इसका रहस्य आज तक कोई नहीं जान पाया। गांव के लोग इसे नागराज का चूहापाली स्थान कहते हैं। इस स्थान को हजारों वर्ष पुराना बताते हैं। लोगों का कहना है कि नाग और चूहे को एक साथ आज तक किसी ने नहीं देखा लेकिन परिक्रमा पथ पर चूहों के मल-मूत्र और और उसके बीचोंबीच नाग का मलमूत्र प्रायः देखा गया है। गांव वाले उस स्थान को कई बार साफ करते हैं लेकिन फिर से वहां मल-मूत्र दिख जाता है। 

प्राचीन मन्दिर में राजा गन्धर्वसेन की मूर्ति भी स्थापित है। वैसे तो राजा गन्धर्वसेन के बारे में कई किस्से-कहानियां प्रचलित हैं लेकिन इस स्थान से जुडी उनकी कहानी अजीब ही है। वहां के लोगों का कहना है कि यहां पर राजा गन्धर्वसेन का मन्दिर सात-आठ खण्डों में था। बीच में राजा की मूर्ति स्थापित थी लेकिन अब सारे खण्ड खत्म हो चुके हैं और सिर्फ राजा की मूर्ति वाला मन्दिर ही बचा है। यहां आसपास जंगल और नदी होने की वजह से कई नाग देखे गये हैं, पर इस मन्दिर में चूहों को किसी ने नहीं देखा। फिर भी वहां चूहों का मल-मूत्र प्रकट हो जाता है। वहां के बुजुर्गों के अनुसार, यहां हजारों वर्षों से एक इच्छाधारी पीला नाग रहता है जिसकी लम्बी-लम्बी मूछें हैं। वह बारह से पन्द्रह फीट लम्बा है। किस्मत वालों को ही नागराज दिखाई देता है। कहते हैं, मन्दिर की रक्षा यही इच्छाधारी नाग करता है। कभी कभी काफी सुबह मन्दिर से घण्टियों की आवाज सुनाई देती है। अमावस्या और पूर्णिमा के दिन अक्सर ऐसा होता है कि जब मन्दिर का ताला खोला जाता है तो पूजा-आरती के पहले ही मन्दिर अन्दर से साफ-सुथरा मिलता है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने अभी अभी पूजा की हो। 

जिस तरह से इस मन्दिर में चूहे नाग की परिक्रमा करते हैं, वैसे ही यहां की सोमवती नदी भी इस मन्दिर का गोल चक्कर लगाते हुए कालीसिंध में जा मिलती है। गन्धर्वसेन मन्दिर में आने वाले हर इंसान का दुख दूर होता है। जो भी यहां आता है, उसको शान्ति का अनुभव होता है। इसका गुम्बद परमार काल में बना है, लेकिन नींव और मन्दिर के स्तम्भ और दीवारें बौद्ध काल की मानी जाती हैं। 

कैसे पहुंचें 

इंदौर से बस या ट्रेन से देवास पहुंचें। देवास से बस द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। देवास की सोनकच्छ तहसील में गन्धर्वपुरी स्थित है। 

लेख: अनिता घोष (राष्ट्रीय सहारा में 20 नवम्बर 2011 को प्रकाशित)

शनिवार, फ़रवरी 11, 2012

सूर्य मन्दिर, कोणार्क

भारत में सूर्य की आराधना सदियों से होती रही है लेकिन यह अलग बात है कि कोणार्क का सूर्य मन्दिर भारत का इकलौता सूर्य मन्दिर है, जो पूरी दुनिया में अपनी भव्यता और बनावट के लिये जाना जाता है। यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। कोणार्क में बनी इस भव्य कृति को महज देखकर समझना कठिन है कि यह कैसे बनी होगी। इस मन्दिर के पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया है कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोडों का पता न चले। 

ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 65 किलोमीटर दूर यह मन्दिर सूर्य देव के रथ के रूप में विद्यमान है। माना जाता है कि गंग वंश के राजा नृसिंहदेव ने इसका निर्माण 1236-1264 ई. पू. में किया था। बलुआ पत्थर और काले ग्रेनाइट पत्थर से बने इस भव्य मन्दिर स्थल को 12 जोडी चक्रों वाले, सात घोडों से खींचे जाते सूर्यदेव के रथ के रूप में बनाया गया है। हालांकि अब इनमें से सिर्फ एक घोडा ही बचा है। कहा जाता है कि इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 सालों तक लगातार काम किया था। मन्दिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है। मुख्य मन्दिर तीन मण्डपों में बना है, जिसमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मण्डप में मूर्ति थी, जिसे अंग्रेजों ने रेत और पत्थर से भरवाकर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बन्द करवा दिया था। 

मन्दिर के प्रवेश द्वार पर नट मन्दिर है। मूल मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं- उदित सूर्य, मध्याह्न सूर्य और अस्त सूर्य। इसके प्रवेश द्वार पर दो सिंह हाथियों पर आक्रमण होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाए गये है। दोनों हाथी एक-एक मानव की मूर्ति पर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनी हैं। मन्दिर के दक्षिण भाग में दो सुसज्जित घोडे बने हुए हैं। पूरे मन्दिर में जहां-तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की भी नक्काशी की गई है, वहीं इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की आकृतियां भी ऐंद्रिक मुद्राओं में दर्शाई गई हैं। 

माना जाता है कि वास्तु दोष होने के कारण यह मन्दिर 800 सालों में ही ध्वस्त हो गया। वास्तुशास्त्री के मुताबिक, मन्दिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व दिशा के साथ आग्नेय और ईशान कोण खण्डित हो गया। पूर्व से देखने पर पता लगता है कि ईशान एवं आग्नेय कोणों को काटकर यह वायव्य और नैऋत्य कोणों की ओर बढ गया है। प्रधान मन्दिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्य शाला है, जो पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होती है। नैऋत्य कोण में छायादेवी के मन्दिर की नींव प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋत्य भाग में मायादेवी का मन्दिर और नीचा है। आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं है। दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार हैं, जिस कारण मन्दिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई है। 16वीं सदी के मध्य में मुगल आक्रमणकारी कालापहाड ने इसे काफी नुकसान पहुंचाया और कई मूर्तियों को खण्डित किया, जिसके कारण मन्दिर का परित्याग कर दिया गया। मुगलकाल में इस मन्दिर में पूजा-अर्चना बन्द हो गई। 

कोणार्क यात्रा का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च तक सर्दियों के दौरान है। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये यहां कोणार्क नृत्य महोत्सव आयोजित किया जाता है। पुरी और भुवनेश्वर से कोणार्क आसानी से जाया जा सकता है और दोनों शहर वायुमार्ग और रेलवे द्वारा जुडे हुए हैं। 

लेख: विनीत (राष्ट्रीय सहारा में 30 अक्टूबर 2011 को प्रकाशित)

शुक्रवार, फ़रवरी 10, 2012

मांडू- खुशियों का शहर

मांडू मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित खूबसूरत एवं ऐतिहासिक पर्यटन स्थल है। यह इंदौर से लगभग 100 किलोमीटर दूर है, जो विन्ध्य पहाडियों में 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मूलतः मालवा के परमार राजाओं की राजधानी हुआ करता था। तेरहवीं सदी में मालवा के सुल्तानों ने इसका नाम शादियाबाद यानी ‘खुशियों का शहर’ रख दिया था। वास्तव में, यह नाम इस जगह को सार्थक करता है। यहां के दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिंडोला महल, शाही हमाम और आकर्षक नक्काशीदार गुम्बद वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। परमार शासकों द्वारा निर्मित इस नगर में जहाज और हिंडोला महल खास हैं, जिनकी वास्तुकला देखने लायक है। मांडू की छोटी छोटी पहाडियों पर बने किलों को देखकर प्रतीत होता है जैसे जादुई विन्ध्य पर्वतमालाएं इनकी जादू की झप्पी ले रही है। मांडू का मनोहर नजारा सैलानियों के साथ साथ ऐतिहासिक धरोहरों व इमारतों को देखने, इन्हें नजदीक से देखने की इच्छा रखने वालों को भी खासा आकर्षित करता है। ऐसी जगह जहां के वातावरण में आनन्द, शान्ति व प्यार का आभास होने के साथ खूबसूरती के कई पहलुओं का मजा भी लिया जा सकता है। 

मांडू अपने भीतर इतिहास के कई राज समेटे हुए है। यहां की बडी बडी इमारतें जो अब खंडहर में तब्दील हो गई हैं, इन्हें देखने पर आज भी एहसास दिलाती हैं जैसे वृहद साम्राज्य आंखों के सामने दिखाई दे रहा हो। हरियाली की चादर ओढे छोटी छोटी पहाडियां, झरने, मवेशी व गहनों से सजे-धजे रंग-बिरंगे कपडे पहने धार के आदिवासी बरबस ही पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं। यदि आप बस से यहां आयेंगे तो रास्तों के दोनों तरफ छोटी-बडी कई जर्जर इमारते नजर आयेंगी। इन इमारतों पर उगी घास व जर्जरता इन्हें और खूबसूरत बनाते हैं। इनमें से एक रानी रूपमति का महल पहाडी की ऊंचाई पर है। कहते हैं कि रानी रूपमति सुबह में यहां से नर्मदा नदी के दर्शन करती थीं। यहां की इमली, कमलगट्टे और सीताफल बहुत प्रसिद्ध हैं। स्वाद, आकार व बनावट में यह इमली काफी अलग सी होती है। 

आकर्षण 

दरवाजे: 45 किलोमीटर लम्बी दीवारों की मुंडेर मांडू को घेरे हुए है, मांडू में प्रवेश करने के लिये उसमें 12 दरवाजे हैं। मुख्य रास्ता दिल्ली दरवाजा कहलाता है। दूसरे दरवाजे में रामगोपाल, जहांगीर और तारापुर दरवाजा शामिल है। 
जहाज महल: सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी द्वारा निर्मित जहाज महल को दो मानवनिर्मित तालाबों के बीच बनाया गया है। देखने में यह जहाज के आकार का है, शायद इसीलिये इसका नाम जहाज महल पडा। यह दोमंजिला महल संगमरमर से बना है, जिसे देखकर प्रतीत होता है कि यह पानी के ऊपर तैर रहा है। 
हिंडोला महल: टेढी व एक तरफ झुकी हुई दीवारों के कारण इस महल को हिंडोला महल कहते हैं। इसका निर्माण 1425 में होशंगशाह के शासन के दौरान हुआ था। इसे दर्शक कक्ष के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। 
जामी मस्जिद: दमिश्क की बेहतरीन मस्जिद से प्रेरित यह मस्जिद अपनी विशालकाय संरचना, सादगी और वास्तुकला के लिये मशहूर है। इसमें मौजूद बडा सा आंगन और भव्य प्रवेश द्वार भी लोगों को लुभाता है। जामी मस्जिद की सीढियां उस समय की वास्तुशिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इसके अलावा होशंगशाह की मस्जिद, नहर झरोखा, बाज बहादुर महल, रानी रूपमति महल, रेवा कुण्ड और नीलकंठ महल भी देखने लायक जगहें हैं। यहां सितम्बर-अक्टूबर में गणेश चतुर्थी भी बडी धूमधाम से मनाई जाती है। 

कब जायें 

मांडू में सालभर उष्णकटिबंधीय जलवायु रहती है, इसलिये गर्मी हो या सर्दी, आप कभी भी यहां अपनी छुट्टियां बिता सकते हैं। सर्दियों में यहां का तापमान 22 डिग्री होता है। जुलाई से मार्च यहां जाना चाहिये। 

कैसे जायें 

सडक मार्ग: अलग-अलग शहरों से यहां आसानी से बस से पहुंच सकते हैं। मांडू और इंदौर के लिये धार से होते हुए, मांडू और रतलाम तथा मांडू और भोपाल से बसें चलती हैं। 
हवाई मार्ग: नजदीकी हवाई अड्डा इंदौर है। इंदौर हवाई अड्डे से मुम्बई, दिल्ली, ग्वालियर और भोपाल तक कई हवाई जहाज उडान भरते हैं। 
रेल मार्ग: दिल्ली-मुम्बई मुख्य लाइन पर रतलाम सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है। ट्रेन से इंदौर पहुंचकर मांडू की यात्रा टैक्सी या बस से कर सकते हैं। 

लेख: अंशुमाला (राष्ट्रीय सहारा में 20 नवम्बर 2011 को प्रकाशित)

गुरुवार, फ़रवरी 09, 2012

महाबलेश्वर

महाबलेश्वर अपनी प्राकृतिक खूबसूरती, आकर्षक नजारों और पहाडों के चलते मशहूर है। यहां से आप समुद्र की झलक भी पा सकते हैं। 

समुद्र तल से 1372 मीटर की ऊंचाई पर स्थित महाबलेश्वर महाराष्ट्र के सतारा जिले में सहयाद्रि पर्वतों के बीच स्थित है। इस जगह के नाम पर कई तथ्य प्रचलित हैं, जैसे शीर्षक ‘महाबलेश्वर’ भगवान महादेव के मन्दिर से उत्पन्न हुआ है और संस्कृत के तीन शब्द महा (बढिया), बल (शक्ति) और ईश्वर (भगवान) इसके नाम को बनाते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि महाबलेश्वर का अर्थ शक्तिशाली ईश्वर है, जो पौराणिक अतीत का भी सर्वेसर्वा है। मैदानी इलाके की गर्मी से बचने के लिये अक्सर मुम्बई के आसपास के इलाकों व अन्य राज्यों से भी लोग यहां वीकेंड पर आते हैं। यहां घूमने और मस्ती-मनोरंजन करने के लिये उम्दा स्थान हैं। 

महाबलेश्वर अपनी प्राकृतिक खूबसूरती, आकर्षक नजारों और सुन्दर दिखते पहाडों के लिये मशहूर है। यहां से आप समुद्र की झलक भी पा सकते हैं। महाबलेश्वर की गलियों में टट्टू की सवारी का मजा लेना रोमांचक अनुभव है। कई तरह के मन को लुभाते हिल रिसॉर्ट इन पहाडों में बनाये गये हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि यह सभी कोलोनियल एरा से यहां मौजूद हों। महाबलेश्वर को महाराष्ट्र के छुट्टियों में घूमने लायक उम्दा व सबसे बेहतरीन माना गया है।, फिर चाहें मौसम, एडवेंचर, घूमने-फिरने के नजरिये से ही क्यों न हो। यहां देखने लायक प्रतापगढ किला काफी भव्य है। इसके अलावा यहां पर ट्रेकिंग, बोटिंग और हॉर्स राइडिंग भी कर सकते हैं। 

कब जायें 

सभी हिल स्टेशनों की तरह महाबलेश्वर भी मानसून (मध्य जून से मध्य सितम्बर) के समय बन्द रहता है। गर्मी के दिनों में यहां अधिक संख्या में पर्यटक आते हैं। अप्रैल से मई के बीच, क्रिसमस (दिसम्बर) और दिवाली (अक्टूबर से नवम्बर) पर आसपास के लोग त्यौहार को डिफरेंट तरीके से इंजॉय करने के लिये यहां आना पसन्द करते हैं। हालांकि अक्टूबर से दिसम्बर के बीच घूमना काफी रोमांचक अनुभव है। 

कैसे जायें 

सडक मार्ग: मुम्बई से होते हुए पुणे यहां की दूरी 290 किलोमीटर है और महाड से 247 किलोमीटर। मुम्बई-पुणे से महाबलेश्वर के बीच प्रतिदिन बसें चलती हैं। बारिश में बसें कम चलती हैं। 
रेल मार्ग: नजदीकी रेलवे स्टेशन वथार है, जो 62 किलोमीटर दूर है। 120 किलोमीटर दूर पुणे सबसे सुविधाजनक रेलवे मार्ग पर पडता है। 
हवाई मार्ग: नजदीकी हवाई अड्डा पुणे है।
कहां ठहरें: यहां कई अच्छे होलीडे रिसॉर्ट और मोटल हैं, जहां उचित दर पर ठहरने की व्यवस्था है। 

लेख: अंशुमाला (राष्ट्रीय सहारा में 30 अक्टूबर 2011 को प्रकाशित)

बुधवार, फ़रवरी 08, 2012

कटारमल- उत्तराखण्ड का सूर्य मन्दिर

सूर्य मन्दिर का नाम आते ही लोगों के जेहन में कोणार्क कौंध जाता है जबकि कोणार्क सूर्य मन्दिर के अलावा उत्तराखण्ड के अल्मोडा जिले में भी एक सूर्य मन्दिर है। यह सूर्य मन्दिर कटारमल गांव में है, इसलिये इसे कटारमल सूर्य मन्दिर भी कहा जाता है। 

बारहवीं सदी में बना यह मन्दिर उत्तराखण्ड के इतिहास का प्रमाण है और सूर्य के प्रति लोगों की आस्था का भी। अल्मोडा में बना यह मन्दिर अपनी खूबसूरती के लिये भी उतना ही प्रसिद्ध है। इसकी बनावट और चित्रकारी बेहद खूब है। दीवारों पर भी खूबसूरत प्रतिमाएं दिख जाती हैं। मन्दिर में भगवान सूर्य की प्रतिमा एक मीटर लम्बी और पौन मीटर चौडी है, जो भूरे रंग के पत्थर को काटकर बनाई प्रतीत होती है। यहां सूर्य भगवान पदमासन की मुद्रा में बैठे हुए हैं। लोगों की आस्था है कि प्रेम और श्रद्धा से यहां मांगी हर इच्छा पूरी होती है। इस मन्दिर के दर्शन से ही भक्तजनों की बीमारियां और दुख दूर हो जाते हैं। इस मन्दिर को बारादित्य भी कहा जाता है, जो कुमाऊं का सबसे ऊंचा मन्दिर है। 

कहा जाता है कि मन्दिर का निर्माण कत्यूरी वंश के राजा कटारमल ने करवाया था, एक इस वजह से इसे कटारमल सूर्य मन्दिर भी कहा जाता है। लोगों का मानना है कि राजा कटारमल ने इस मन्दिर का निर्माण एक रात में करवा लिया था। कोणार्क सूर्य मन्दिर की तरह ही यह भी कॉम्प्लेक्स के समान ही है यानी यहां 45 छोटे-छोटे मन्दिरों की श्रंखला है। मुख्य मन्दिर में सूर्य की प्रतिमा के अलावा विष्णु, शिव और गणेश की मूर्तियां भी हैं। अन्य देवी-देवता भी यहां विराजमान हैं। लोगों का यह भी मानना है कि सभी देवी-देवता यहां मिलकर भगवान सूर्य की पूजा करते हैं। यहां सूर्य की प्रतिमा कई मायनों में अलग है, भगवान सूर्य यहां बूट पहने दिखते हैं। मन्दिर की इस प्रमुख बूटधारी मूर्ति की पूजा विशेष तौर पर शक जाति करती है। 

कहा तो जाता है कि यह मन्दिर बारहवीं सदी में बना है, फिर भी इसकी स्थापना को लेकर लोगों में एक मत नहीं है। इतिहासकारों का मानना है कि अलग-अलग समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा है। हां, वास्तुकला की दृष्टि से देखा जाये तो यह मन्दिर 12वीं सदी का प्रतीत होता है। मन्दिर की मुख्य प्रतिमा 12वीं सदी में निर्मित बताई जाती है। सूर्य के अलावा विष्णु-लक्ष्मी, शिव-पार्वती, कुबेर, महिषासुरमर्दिनी आदि की मूर्तियां भी गर्भ-गृह में रखी हुई हैं। मुख्य मन्दिर के द्वार पर एक पुरुष की धातु की प्रतिमा है, जिसके बारे में राहुल सांकृत्यायन ने कहा है कि यह मूर्ति कत्यूरी काल की है। इस ऐतिहासिक मन्दिर को सरकार ने पुरातत्व स्थल घोषित कर दिया है। अब यह राष्ट्रीय सम्पत्ति हो गई है। मन्दिर की अष्टधातु की प्राचीन मूर्तियां काफी पहले चुरा ली गई थीं लेकिन अब इन्हें राष्ट्रीय पुरातत्व संग्रहालय में रखा गया है। मन्दिर के लकडी के खूबसूरत दरवाजे भी यहीं रखे गये हैं। 

एक साल पहले तक इस मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार का पता नहीं था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को मन्दिर की पूर्व दिशा में कुछ सीढियों के अवशेष मिले हैं। उडीसा के कोणार्क मन्दिर का भी प्रवेश द्वार पूर्व में है। वैदिक पुस्तकों के अनुसार भी सूर्य मन्दिरों का प्रवेश द्वार पूर्व में ही होता है लेकिन कटारमल मन्दिर का प्रवेश द्वार आश्चर्यजनक रूप से एक कोने में है, जो इस स्थापत्य से मेल नहीं खाता। इस मन्दिर समूह के सभी मन्दिरों का प्रवेश समूह के पीछे छोटे से प्रवेश द्वार से है, जो सूर्य मन्दिर को भी जोडता है। 

यह मन्दिर करीब 1554 मीटर की ऊंचाई पर है, जहां पहुंचने के लिये पैदल चलना पडता है। यहां पहुंचने के लिये पहले अल्मोडा आना होगा। अल्मोडा से रानीखेत के रास्ते 14 किलोमीटर के बाद 3 किलोमीटर पैदल चलना पडता है। वैसे अल्मोडा से कटारमल मन्दिर की दूरी करीब 20 किलोमीटर है। 

लेख: राष्ट्रीय सहारा में 26 जून 2011 को प्रकाशित