रविवार, जुलाई 24, 2011

तिब्बती मार्केट- दिल्ली में बसा एक मिनी तिब्बत

लेख: अनिल कर्णवाल

दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय बस टर्मिनल से 1 किलोमीटर दूर वजीराबाद बांध के समीप यमुना के किनारे एक स्थान है- मजनूं का टीला। वर्तमान में वहां न तो कोई मजनूं है, न ही कोई टीला लेकिन फिर भी यह स्थान राजधानी के विख्यात स्थानों में से एक है। इस स्थान की पहचान का कारण है, यहां पर स्थित तिब्बती रिफ्यूजी कैम्प।

लगभग 350 घरों तथा 3000 की आबादी वाली इस बस्ती में सर्वत्र तिब्बती संस्कृति तथा लोकाचार के दर्शन होते हैं। छोटी छोटी तंग व संकीर्ण गलियों वाली इस बस्ती में अपनी विशिष्ट वेशभूषा में तिब्बती लोगों तथा तिब्बती शैली में बने उनके घरों को देखकर ऐसा महसूस होता है कि जैसे हम तिब्बत के ही किसी छोटे से नगर में हैं।

मजनूं का टीला स्थित इस तिब्बती रिफ्यूजी कैम्प के प्रधान सवांग दोरजी के अनुसार ‘सन 1959 में चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा कर लेने के बाद से हजारों तिब्बतियों ने भारत में शरण ली थी। जिनमें से कुछ धर्मशाला, देहरादून, शिमला, डलहौजी, कुल्लू, मनाली आदि में बस गये तथा कुछ दिल्ली में। दिल्ली में हम लोग 1959 से ही हैं। राजधानी में हमारा सर्वप्रथम आश्रय बुद्ध विहार में था। उसके बाद केला गोदाम में हुआ तथा अब मजनूं का टीला, जहां पर हम 1965 से हैं।’

तिब्बतियों की इस बस्ती में ‘छंग’ तथा जींस, जूते, स्वेटर, शाल तथा कई अन्य सामान मिलता है। ‘छंग’ जौ द्वारा निर्मित एक बीयर जैसा पेय होता है, जिसमें एल्कोहल नहीं होता।

दिल्ली स्थित ब्यूरो ऑफ दलाई लामा, जो तिब्बत के दूतावास के समकक्ष है, के सचिव जायमल कोसांग के अनुसार, ‘तिब्बती लोग मूलतः कृषक हैं। जो कुछ कार्य वे यहां कर रहे हैं, वह उनकी मजबूरी है। आजीविका के लिये कुछ कार्य तो करना ही पडता है।’

यहां का दूसरा आकर्षण है, यहां का मार्केट जो मॉनेस्ट्री के नाम से विख्यात है। विदेशी जींस, जैकेट, जूते, स्वेटर आदि के लिये मशहूर यह मार्केट प्रतिदिन हजारों ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। तिब्बत मार्केट एसोसियेशन के अध्यक्ष लोबसांग रायतेंग के अनुसार ‘हम शरणार्थी जरूर हैं पर भिखारी नहीं।’ इसी वजह से प्रत्येक तिब्बती किसी न किसी व्यवसाय से जुडा है। इस मार्केट में आज 66 पंजीकृत दुकानें हैं। हमारी वस्तुओं की विशिष्टता व उचित मूल्यों के कारण तो हम इतने ग्राहकों को आकर्षित करने में सफल होते हैं। कैम्प प्रधान सवांग दोरजी के अनुसार ‘ऐसा नहीं है कि हम विदेशी सामान ही बेचते हैं। होजरी का तमाम सामान हम लुधियाना से यहां लाकर बेचते हैं। कुछ जींस, जैकेट ही विदेशी होती हैं जिन्हें नेपाल, पाकिस्तान आदि से लाकर यहां बेचा जाता है। इस प्रकार अधिकांश वस्तुएं भारतीय ही होती हैं।’

इतने समय से दिल्ली में रहने के बावजूद इन तिब्बतियों ने आज भी भाषा, संस्कृति व साहित्य को नहीं छोडा है। वर्षों के इस प्रवास के दौरान भारतीय संस्कृति का उन पर प्रभाव तो अवश्य पडा है, लेकिन वे आज भी अपनी संस्कृति को सबसे श्रेष्ठ व विशिष्ट मानते हैं। यही कारण है कि यहां के अधिकतर तिब्बतियों को उनकी परम्परागत वेशभूषा में देखा जा सकता है। शादी ब्याह के मामले में तिब्बती आज भी अपनी परम्परा में बंधे हैं। सवांग दोरजी के अनुसार ‘तिब्बती आज भी एक तिब्बती से ही शादी करना पसन्द करता है। हमारे कैम्प का यह नियम है कि अपनी जात बिरादरी से बाहर शादी नहीं होगी। साथ ही शादी से पहले लडके लडकी का मिलना जुलना पसन्द नहीं किया जाता है।’

जहां तक शिक्षा का प्रश्न है, दिल्ली में इनकी एक ऑटोनॉमस संस्था है ‘सेण्ट्रल तिब्बतियन स्कूल एडमिनिस्ट्रेशन’ जिसके अंतर्गत 35 तिब्बती स्कूल चल रहे हैं। इन स्कूलों में तिब्बती बच्चों को उनकी भाषा, संस्कृति की शिक्षा के साथ साथ अन्य आवश्यक विषयों की भी शिक्षा दी जाती है।

तिब्बतियों के भारत में 10+2 स्तर के चार आवासीय स्कूल हैं जो मसूरी, दार्जीलिंग, डलहौजी तथा शिमला में स्थित हैं। इसके अतिरिक्त सांची, सारनाथ तथा बनारस में विशिष्ट अध्ययन केन्द्र हैं जहां पर बहुत ही मेधावी बच्चों को पढने के लिये भेजा जाता है। इसके अतिरिक्त अनेक मेधावी तिब्बती छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपना भविष्य उज्जवल बना रहे हैं।

कोसांग का मानना है ‘आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक समस्याएं दूसरी श्रेणी की समस्याएं हैं। हमारी प्रथम समस्या है राजनीतिक। जिस दिन तिब्बत की समस्या का राजनीतिक हल निकल जायेगा उस दिन हमारी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक समस्याएं अपने आप समाप्त हो जायेंगी।’



सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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मुसाफिर हूं यारों- नीरज जाट का यात्रा ब्लॉग

शनिवार, जुलाई 23, 2011

रेणुका झील: एक सपनीले लोक से मुखातिब

लेख: प्रकाश पुरोहित ‘जयदीप’

संदीप पंवार के सौजन्य से

हिमाचल प्रदेश हमेशा से ही अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के कारण पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। यहां पर पर्यटकों को अपनी ओर खींचते ऐसे अनेक स्थान हैं। इन्हीं में से एक है- नाहन से मात्र 37 किलोमीटर दूर रेणुका झील। मखमली घास, लताओं के कुंज, मन्दिर, नदी और एक खूबसूरत ताल- यही है रेणुका झील।

हिमाचल प्रदेश के पूर्वी छोर में स्थित है सिरमौर जनपद के मुख्यालय नाहन से 37 किलोमीटर दूर स्थित एक स्वर्गिक सौन्दर्य स्थली रेणुका झील। तीन किलोमीटर लम्बी व आधा किलोमीटर चौडी ताजे मीठे जल व झिलमिलाती मछलियों से लबालब भरी। चारों ओर घने हरे-भरे जंगल, मखमली घास, लताओं के कुंज, फूलों की बहार, मन्दिर, आश्रम, बंगले और दिलकश चिडियाघर... पास ही बहती गिरी नदी और एक खूबसूरत ताल। यानी जहां निगाह डालिये वहां एक अनाम जादुई आकर्षण व सौन्दर्य। पूरे दिन चिडियों की चहचाहट से भरी यह शान्त मनोरम खूबसूरत जगह मानव को आत्मविभोर कर देती है। यहां खाने रहने की सभी आधुनिक सुविधाएं हैं और देश के किसी भी हिस्से से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है।

नाहन और पौण्टा साहिब दो ऐसे नगर हैं जहां से एक घण्टे में मोटर मार्ग द्वारा रेणुका झील पहुंचा जाता है। नाहन शहर दिल्ली, चण्डीगढ, अमृतसर, यमुनानगर, सहारनपुर, पटियाला व शिमला आदि शहरों से मोटर मार्ग से सीधा जुडा है। नाहन से आठ किलोमीटर आगे एक मार्ग उत्तर की ओर निकलता है। यही से रेणुका के लिये रास्ता जाता है। यह मार्ग उतार-चढाव से भरपूर पर सुन्दर दृश्यों से भरा हुआ है। सडक पक्की है।

पौण्टा साहिब से जो सडक रेणुका को जाती है वह खस्ताहाल है। बरसात के दिनों में यह सडक यातायात के लिये बन्द हो जाती है। देहरादून से पौण्टा साहिब की दूरी 45 किलोमीटर है। नाहन से प्रतिदिन चार-पांच स्थानीय बसें रेणुका के लिये जाती हैं।

समुद्र तल से 2200 फीट की ऊंचाई पर स्थित है रेणुका झील। न ज्यादा गर्मी न ज्यादा ठण्ड। थोडा सा दिसम्बर से फरवरी तक का समय कष्टकारी है क्योंकि इस दौरान शीत प्रकोप जारी रहता है।

रेणुका झील का अपना विशिष्ट धार्मिक महत्व है। स्थानीय बाशिंदों की असाधारण श्रद्धास्थली भी है यह। परशुराम की माता रेणुका देवी के नाम पर ही झील का नामकरण हुआ है। प्राचीन धर्मग्रंथों में उल्लेख है कि माता रेणुका ने यही निवास व तप किया था। इस स्थान के बारे में कई धार्मिक किंवदंतियां व कथाएं प्रचलित हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार इस क्षेत्र में बहुत समय पहले सहस्त्रबाहु राजा का आतंक व्याप्त था। अहंकारी, अत्याचारी व सत्तालोलुप सहस्त्रबाहु ने एक दिन चुपके से रेणुका माता के पति जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका माता की ओर बढने पर रेणुका भागी भागी नीचे तलहटी में पहुंची। देखते ही देखते धरती फट गई और रेणुका उसमें समा गई। चारों तरफ पानी ही पानी भर गया और बन गई रेणुका झील।

रेणुका झील की परिक्रमा रोचक, आनन्दकारी व याद रखने लायक है। झील के किनारे जामुन, खजूर, वट, पीपल, कचनार, गूलर, पापुलस के पेडों की छटा अदभुत है। बडी बडी असंख्य मछलियां झील में अठखेलियां करती रहती हैं। झील के सीने पर लहरों के लय-सुर के साथ साथ फिसलना है तो यहां आधुनिक नावें भी उपलब्ध हैं। झील के किनारे-किनारे चलते हुए नाना भांति के पक्षियों का शोर मंत्रमुग्ध कर देता है।

झील की परिक्रमा का एक और अनूठा निराला आकर्षण है- विस्तृत चिडियाघर। हिमाचल सरकार ने यहां अलग-अलग बाडों में बारहसिंघे, हिरण, कद्दावर भालू, बाघ, शेर आदि जानवर रखे हैं। पर्यटक जंगल के इन अनमोल प्राणियों को बहुत नजदीक और कभी कभी तो सामने देखकर अपनी जिज्ञासाओं को शान्त करता है। एक अलग प्रकोष्ठ में मोर, बत्तख व अनेक किस्म के पक्षियों को रखा गया है। यह चिडियाघर वन, खेती व संरक्षण विभाग, हिमाचल प्रदेश द्वारा संचालित है।

झील के किनारे हिमाचल प्रदेश पर्यटन निगम का एक आकर्षक कैफे हाउस व टूरिस्ट विश्राम गृह है। चार सेट का खूब सजा-धजा एक डाक बंगला भी यहां है। रेणुका विकास बोर्ड द्वारा निर्मित कुब्जा पैवेलियन भी आवास हेतु उपलब्ध है। पैवेलियन में एक बहुत ही बडा हाल, डारमेट्री व कमरे हैं। गोष्ठियों, सेमीनार व रंगारंग कार्यक्रमों को आयोजित करने के लिये कुब्जा कला मंच भी बनाया गया है। कुछ यात्री झील किनारे बने महात्माओं के आश्रम में रहते हैं। इन्हीं आश्रमों के निकट महिला व पुरुष स्नान घाट बने हुए हैं।

हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह ने विशेष रुचि लेकर 1984 में इस स्थली के विकास हेतु रेणुका विकास बोर्ड की स्थापना की थी। बोर्ड ने यहां मन्दिर जीर्णोद्धार व सौन्दर्यीकरण के लिये कई कार्य किये हैं।

दीपावली के ठीक दस दिन बाद में यहां एक वृहद मेला जुटता है। दूर-दराज के इलाकों की भव्य रथयात्राएं व पालकियां पहुंचती हैं। लोग झील में स्नान व परिक्रमा करते हैं। पर्यटक मेले से अखरोट, शहद, अदरक व काष्ठ निर्मित खिलौने ले जाते हैं।

झील के पास ही एक और सुरम्य लघु झील है- परशुराम ताल। ताल के किनारे परशुराम का मन्दिर व आसपास कई देवालय हैं। झील से 10 किलोमीटर दूर तपे का टीला है। कुछ पास में ही एक झरना है। झील के किनारे एक जगह माता रेणुका की भव्य प्रतिमा दर्शनीय है।

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शुक्रवार, जुलाई 22, 2011

शिमला- जो कभी एक निर्जन गांव था

लेख: गुरमीत बेदी

संदीप पंवार के सौजन्य से

रोजमर्रा के तनावों से जब कोई उकता जाता है तो ऐसे में बडी शिद्दत से यह चाह होती है कि काश पंख लग जायें और किसी ऐसी जगह उड चलें जहां तनाव शब्द का अस्तित्व न हो और मानसिक सुकून इस हद तक मिले कि मन मस्तिष्क नई चेतना, नई उमंग, नई स्फूर्ति से सराबोर हो उठे। पंख उगने की कल्पना करना तो खुली आंखों से ख्वाब देखने की तरह होगा, लेकिन ताजादम होने के लिये पहाडों का मौन निमन्त्रण अवश्य स्वीकार किया जा सकता है।

पहाडों के आगोश में कई ऐसे रमणीय स्थल हैं, जहां एकबारगी पहुंचने पर लौटने को कतई जी नहीं करता। रोजमर्रा के कामों की थकान जहां की आबोहवा का स्पर्श पाते ही पलभर में छूमंतर हो जाती है, ऐसा ही एक पर्वतीय स्थल है- शिमला। देवदार, ओक, फर व बुरांश के विशालकाय दरख्तों के आवरण में लिपटा शिमला अंग्रेजों की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी रहा है और बहुचर्चित ‘शिमला समझौते’ की वजह से अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर भी अंकित है। यही नहीं, इसे ‘पहाडों की रानी’ और ‘पहाडों का दिल’ कहकर भी सम्बोधित किया जाता है। हिमाचल के एक लोकगीत की पंक्तियां हैं- ‘म्हारे पहाडा रा दिल शिमला’ तो यहां एकबारगी आया सैलानी वर्षों तक गुनगुनाता रहता है।

शिमला के उदभव की दास्तान भी कम रोचक नहीं है और इस पर्वतीय नगर ने कई उतार-चढाव देखे हैं। कहा जाता है कि स्थल की खोज अठारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। राजा बिंदुसार की विधवा मानसिक सुकून पाने के लिये कोई एकान्त स्थल खोजती सर्वप्रथम यहां पहुंची थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार शिमला की सर्वप्रथम खोज एक अंग्रेज अधिकारी ने की थी जो सन 1816 में सपाटू से कोटगढ के लिये बरास्ता शिमला से होकर गुजरा था। कुछ अन्य इतिहासकार शिमला की खोज का श्रेय उन जिराल्ड बन्धुओं को देते हैं जो सन 1817 में शिमला-जाखू मार्ग से सतलुज घाटी के भू-गर्भ सम्बन्धी सर्वेक्षण के लिये किन्नौर गये थे। इन दोनों बन्धुओं में से एक एलेक्जेण्डर जिराल्ड ने 30 अगस्त 1817 को अपनी डायरी में लिखा था- ‘हम रात को जाखू टिब्बे के इस ओर रहे। यहां एक फकीर राहगीरों को पानी पिलाता है। यह फकीर तेजस्वी है। वह अपने जिस्म पर मात्र चीते की खाल ओढे रखता है और इस निर्जन, भयावह व घने जंगल में रहने वाला एकमात्र मनुष्य है...’ इस डायरी का वर्णन ‘शिमला पास्ट एण्ड प्रजेण्ट’ में मिलता है।

वर्तमान स्वरूप में आने से पूर्व शिमला एक निर्जन सा गांव था जिसे ‘श्यामला’ के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि श्यामला नाम भी इसलिये पडा क्योंकि यहां जिस फकीर का बसेरा था, वह घर नीले रंग की स्लेटों से निर्मित था। फिर श्यामला से अपभ्रंश होकर इसका नाम ‘शुमलाह’ पडा जो एक अरसे तक ‘शिमलाह’ रहने के बाद फिर ‘शिमला’ हो गया। इस नगर को सजाने-संवारने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। अंग्रेजों को यहां पर काबिज होने से पूर्व नेपाली आक्रमणकारी गोरखाओं से भी जूझना पडा। सर एडवर्ड बक के अनुसार 1819 में सहायक राजनैतिक अधिकारी लेफ्टि. रौस ने सबसे पहले शिमला में लकडी और घासफूस से निर्मित झौंपडी बनाई व उसमें रहने लगे। रौस के बाद मेजर कैनेडी इस क्षेत्र के राजनैतिक अधिकारी हुए। उन्होंने सर्वप्रथम 1822 में यहां लकडी और पत्थर से निर्मित पहला पक्का मकान बनाया, जिसे ‘कैनेडी हाउस’ के नाम से जाना गया। इस इमारत का सर्वप्रथम चित्र 1825 में बनाया गया था, जो 1833 में ‘व्यू ऑफ इण्डिया फ्रोम कलकत्ता टू हिमालय’ में सर्वप्रथम हुआ। 1976 में कैनेडी हाउस की इमारत आग की भेंट चढ गई और इस इमारत की जो एनेक्सी बची थी, वह भी कुछ समय पूर्व एक आग्निकाण्ड में खाक हो गई।

कैनेडी हाउस बनने के बाद कई अंग्रेज अधिकारी यहां के सम्मोहन में बंध गये और मकान बनाकर यही बस गये। उन दिनों यह क्षेत्र पटियाला और क्योंथल राज्यों के सीमा क्षेत्र में था और बसने से पूर्व इन राजाओं की अनुमति हासिल करनी पडती थी, जो कि कहा जाता है सिर्फ दो शर्तें मानने पर ही मिल जाती थी। ये शर्तें थीं- यहां न तो कोई गौ-वध करेगा और न ही अपनी मर्जी से पेडों का कटान। सन 1830 में जब मेजर कैनेडी को सरकार ने पटियाला और क्योंथल के राजाओं से शिमला के आसपास के क्षेत्र प्राप्त करने के लिये कहा तो शिमला के दिन फिरने लगे। क्योंथल के राजा ने अंग्रेज सरकार को ग्यारह गांव देकर बदले में रावीगढ का परगना हासिल किया, जबकि चार गांवों के एवज में तीन गांव हासिल किये। फिर तो शिमला दिनोंदिन प्रगति करता गया और देश-विदेश में इस स्थल की ख्याति फैलने लगी।

पहले जब शिमला में आवाजाही के साधन नहीं थे तो सामान ढोने का काम खच्चरों द्वारा किया जाता था। स्त्रियों, वृद्धों, मरीजों व बच्चों के लिये ‘झम्पाण’ की सवारी होती थी। झम्पाण कुर्सीनुमा एक आसन होता है, जिसे दो डण्डों के सहारे चार व्यक्ति उठाते थे। फिर जब 1870 के आसपास कालका-शिमला मार्ग का निर्माण हुआ तो झम्पाण का स्थान बैलगाडी, इक्के और तांगे ने ले लिया। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में कालका-शिमला रेलमार्ग का निर्माण हुआ और 9 नवम्बर 1903 को पहली रेलगाडी शिमला की हसीन वादियों में पहुंची। इस रेलमार्ग को पूरा करने का श्रेय मि. एच. एस. हेरिंगटन को जाता है। अंग्रेजों के समय में ही यहां कई सुरंगों का निर्माण हुआ जो दुर्गम पहाडी क्षेत्रों को आपस में जोडने में बडी कारगर साबित हुई। इन सुरंगों का वजूद न केवल आज भी कायम है, बल्कि कई सैलानी तो शिमला को ‘सुरंगों की नगरी’ का खिताब भी दे देते हैं।

शिमला और इसके आसपास देखने के लिये बेशुमार स्थल हैं। बस पैरों में दमखम चाहिये, ऊंचे-नीचे स्थलों पर चढने-उतरने का। शिमला में ठहरने के लिये सैलानी को कोई दिक्कत भी नहीं होती। आधुनिक वैभवपूर्ण होटलों से लेकर यहां कई सस्ते होटल व सराय भी हैं। पर्यटन विभाग के खूबसूरत होटल ‘होलीडे होम’ के अलावा विभाग द्वारा मंजूरशुदा पचास से अधिक मेहमानगृह भी हैं। शिमला के रमणीय स्थलों में रिज, जाखू, वाइल्ड फ्लावर, कुफरी, मशोबरा, चायल, नालदेहरा व क्रैगनैनों का नाम लिया जाता है।

‘रिज’ में तो मानों शहर का दिल धडकता है। शाम के समय तो यहां सैलानियों व शहरियों की इतनी रेल-पेल होती है गोया यूं लगता है मानों कोई उत्सव हो रहा है। हर कोई यहां तफरीह मारने को बेचैन रहता है। गर्मियों में जहां आधी-आधी रात तक रिज पर चहल-पहल रहती है, वही सर्दियों में जब कडकती ठण्ड में दांत तक बज रहे हों, लोग रिज पर जमी बर्फ की चादर पर चहलकदमी करने से नहीं चूकते। रिज पर घुडसवारी का भी निराला ही लुत्फ है। बच्चों, महिलाओं से लेकर बुजुर्ग तक घुडसवारी का आनन्द लेते देखे जा सकते हैं। पास ही स्थित दौलतपुर पार्क में हिमाचली वेशभूषा में तस्वीर उतरवा कर आप हमेशा के लिये शिमला की स्मृतियों को सहेज सकते हैं। रिज का ही एक अन्य आकर्षण है, यहां का ऐतिहासिक गिरजाघर जो मात्र एक प्रार्थनालय ही नहीं अपितु कलाकृति का भी बेमिसाल नमूना है।

रिज से दो किलोमीटर दूर जाखू पहाडी है। यहां पहुंचने के लिये खडी चढाई चढनी पदती है। पहाडी की चोटी पर हनुमानजी का मन्दिर है। अगर यहां बन्दर आपको चैन से बैठने दें तो आप घण्टों शिमला का अनुपम सौन्दर्य निहार सकते हैं। वैसे बन्दरों को चले खिलाकर आप उन्हें ‘वश’ में कर सकते हैं। जाखू की पहाडी से सूर्यास्त का नजारा भी बडा विहंगम लगता है।

शिमला से 23 किलोमीटर दूर नालदेहरा विश्व के सबसे ऊंचे गोल्फ मैदान के लिये प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि एक बार लार्ड कर्जन इस स्थल के प्राकृतिक सौन्दर्य से इतने अभिभूत हो उठे थे कि उन्होंने अपनी बेटी नालदेहरा अलेक्जेण्डर के नाम पर इस स्थान का नाम ही नालदेहरा रख दिया था। यही नहीं, उन्होंने नालदेहरा को सडक मार्ग से जोड दिया था ताकि मैदानी इलाकों के लोग भी इस खूबसूरत स्थल का सौन्दर्य आत्मसात कर सकें। सैलानियों के ठहरने के लिये पर्यटन बंगले के अलावा यहां कॉटेज व लॉज हट्स भी हैं।

शिमला से सोलह किलोमीटर दूर चारों ओर से बर्फीली पहाडियों से घिरा कुफरी नामक एक अन्य रमणीय स्थल है। समुद्र तल से 2623 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस स्थल को चीनी बंगला के नाम से भी जाना जाता है। चीनी बंगला वास्तव में अब एक कैफेटेरिया है, जिसके प्रांगण में दुर्लभ भोजपत्र के तीन वृक्ष लगे हुए हैं। कुफरी में लगभग डेढ किलोमीटर की परिधि में इंदिरा टूरिस्ट पार्क स्थित है, जहां एक लघु चिडियाघर बनाया गया है। बर्फ के ऊंट कहे जाने वाले पशु याक पर यहां सवारी करने का लुत्फ ही निराला है। बर्फ के खेलों के लिये भी कुफरी मशहूर है। शिमला में स्कीइंग शुरू करने का सौभाग्य भी कुफरी को ही प्राप्त है। बर्फबारी के दिनों में तो यहां स्कीइंग प्रेमियों का सैलाब सा उमड पडता है। यहां पर महासू से कुफरी बाजार तक जाती तीन किलोमीटर लम्बी स्कीइंग स्लोप पर फिसलते हुए पहला पडाव ‘कुबेर’ के पास आता है। वहां से जम्प लगाकर स्कीयर कुफरी बाजार तक फिसलता हुआ पहुंच जाता है। हेलीकॉप्टर सुविधा न होने पर स्कीयर ‘बर्फ-शू (एक प्रकार के जूते) पर लगी विशेष चपटी के बल पर फिर से बर्फीली ढलानों पर चढता हुआ मिशिखर, यानी महासू चोटी पर जा पहुंचता है और वहां से बर्फीली ढलानों पर फिसलने का रोमांच फिर से लेता है।

शिमला से 47 किलोमीटर दूर घने वृक्षों से घिरा खूबसूरत स्थल चायल है। समुद्र तल से 2150 मीटर की ऊंचाई पर स्थित चायल को ‘चैल’ के नाम से भी जाना जाता है। आजादी से पहले चायल पटियाला के महाराजाओं भूपेंद्र सिंह व यादवेंद्र सिंह की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी थी। इन दोनों महाराजाओं की चूंकि क्रिकेट में बेहद रुचि थी, अतः उन्होंने यहां पर एक क्रिकेट मैदान भी बनवाया था जिसे दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट मैदान माना जाता है। यह मैदान चारों ओर से विशालकाय पेडों से घिरा है और यहां से बर्फ से आच्छादित हिमालय का सौन्दर्य अवलोकन किया जा सकता है।

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गुरुवार, जुलाई 21, 2011

नारकंडा: अंग्रेजों के जमाने का एक पर्यटन स्थल

यात्रा वृत्तान्त: श्यामल कुमार

संदीप पंवार के सौजन्य से

देवदार और चीड के लम्बे वृक्ष, पूर्णिमा के चांद की रोशनी में धवल कैलाश श्रंखलाएं, चारों ओर फैली सफेद बर्फ और गहरी घाटियां- गाइड के इन शब्दों से मेरे सामने प्राकृतिक सौन्दर्य की अदभुत सम्पदा से भरी पूरी स्थली नारकंडा का दृश्य साकार हो उठा। नारकंडा हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से कुछ दूरी पर स्थित एक छोटी सी जगह है। बरसों से पर्यटकों के लिये कुछ गिने चुने पर्यटक स्थल हैं जैसे शिमला, ऊटी, श्रीनगर, दार्जीलिंग वगैरह वगैरह। टूरिस्ट सीजन में इन जगहों पर इतनी भीड हो जाती है कि यहां खूबसूरती भी दब सी जाती है।

शिमला से नारकंडा का सफर करीब ढाई तीन घण्टे का है। शाम के कोई सात-साढे सात बजे मैं नारकंडा पहुंचा। बस से उतरते ही ठण्डी हवा के जबरदस्त झौंके से पूरे शरीर में सिहरन सी दौड गई। सामने बर्फ से ढकी हिमालय की कैलाश श्रंखलाएं, मनमुग्धा चांदनी और घाटी में मोतियों जैसे चमकते घर- इस दृश्य को पन्द्रह मिनट निहारने के बाद रहने की व्यवस्था के बारे में मालूम किया। ऊपर छोटी सी चट्टान पर छोटा सा कमरा मिल गया। यहां रहने के लिये छोटे होटल और गेस्ट हाउस भी हैं।

अगली सुबह चिडियों के चहचहाने के साथ मेरी नींद जिस करवट टूटी, वहां खिडकी से दिखने वाला दृश्य ही मेरी उस अद्वितीय सुबह का प्रारम्भ था। हल्के लाल आकाश के नीचे कोहरे के कारण न केवल कैलाश पर्वत बल्कि गहरी घाटियां भी नहीं दिखाई पड रही थीं। अहिस्ता-अहिस्ता आकाश में फैलता प्रकाश, उस प्रकाश से फीका पडता कोहरा और कोहरे की मैली चादर को चीरती पर्वत श्रंखलाएं दिखाई पडने लगीं। कैमरा निकाल मैं आसपास के दृश्यों को छायांकित करने लगा। कुछ समय एक ग्रामीण मेरे समीप आया। वह उन दृश्यों को कम तथा मेरी प्रतिक्रियाओं को ज्यादा देख रहा था। जाहिर है, वह स्थानीय था। बातों बातों में मैंने उससे नारकंडा के इतिहास के बारे में पूछा।

उसने बताना शुरू किया कि इस स्थान का नाम नारकंडा कैसे पडा। बस स्टैण्ड के पास ही एक छोटी सी चट्टान है। मान्यता है कि इस पर कभी नाग देवता का वास हुआ करता था। लोगों ने वहां एक छोटा सा मन्दिर बनवा दिया। कंडा का मतलब है कोई छोटी ढलानदार पहाडी। बस तभी से इसका नाम नारकंडा पड गया। कहा जाता है कि यह कस्बा पठानों के आक्रमण के बाद बसना शुरू हुआ। मुहम्मद गौरी ने जब भारत पर आक्रमण किया तो बिहार और उत्तर प्रदेश के गरीब तबके के लोगों ने भागकर इन जगहों पर शरण ली और इसे सुरक्षित स्थान मानकर यहां के निवासी बन गये। 1803 में गोरखा आक्रमण पर यही लोग ढाल बनकर खडे हो गये और गोरखाओं को पीछे हटना पडा। आजादी से पहले जब पूरे हिमालय में शिमला के अतिरिक्त कहीं और यात्रियों के रहने का स्थान नहीं था तब अंग्रेजों ने नारकंडा को भी पर्यटन स्थल बना रखा था। उन्होंने यहां एक रेस्ट हाउस बना रखा था। उसमें लगभग 8-10 कमरे रहे होंगे जिनका आरक्षण सालों पहले हो जाया करता था। कमरे न मिलने पर भी अंग्रेज यहां आते और तम्बू लगाकर छुट्टियां व्यतीत करते थे। उस समय अच्छे गाइड भी हुआ करते थे जो पूरे हिमालय के बारे में जानकारी देते थे। वे लोग अच्छे महाराज भी हुआ करते थे। अंग्रेज उनकी सेवाओं से हमेशा प्रसन्न रहते थे।

लगभग 1956 तक अंग्रेज वापस जा चुके थे। उनके बाद न तो नारकंडा की सुविधाओं पर गौर किया गया और न गाइडों को कोई प्रोत्साहन मिला। कोई दो साल पहले तक यहां हिमाचल पर्यटन विभाग के छह कमरों के अलावा और कोई ठहरने का स्थान नहीं था। शिमला से सूचना भेजने पर यात्रियों को मालूम पडता था कि वहां सभी कमरे पहले ही बुक हैं। इस कारण भी लोग वहां नहीं पहुंच पाते थे। यहां आसपास तक किसी शौचालय आदि की व्यवस्था नहीं थी। आज भी नारकंडा उपेक्षा का शिकार है।

नारकंडा के आसपास के क्षेत्र में भी प्राकृतिक सौन्दर्य तथा अपनी-अपनी अलग-अलग विशेषता लिये हुए है। थानाधार एक ऐसी ही जगह है। यहां अमेरिका से आये सत्यानन्द स्टोक्स (जिनका वास्तविक नाम सेमोएल स्टोक्स था) नामक पादरी रहते हैं। उन्होंने एक भारतीय हरिजन लडकी से विवाह करके हिन्दु धर्म ग्रहण किया और अपना नाम सत्यानन्द स्टोक्स रखा। उन्होंने थानाधार की ऊपरी पहाडी पर एक सुन्दर मन्दिर बनवाया, जिस पर गीता के उपदेश लकडी की नक्काशी करके खुदवाये गये। यह मन्दिर उस समय की काष्ठकला का अद्वितीय नमूना है।

अमेरिका से लाया गया सेब का पौधा भी स्टोक्स ने सबसे पहले थानाधार में ही लगाया। थानाधार में कोटगढ नामक स्थान पर सेब के बगीचे अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। इन क्षेत्रों को एप्पल बेल्ट भी कहा जाता है। प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी कोटगढ का नाम पहले नम्बर पर आता है।

नारकंडा बस अड्डे से लगभग आठ किलोमीटर तथा 2500 मीटर की ऊंचाई पर एक छोटा मन्दिर है- हाटू। बिल्कुल चोटी पर होने के कारण इसे हाटू पीक कहते हैं। सैंकडों वर्ष पुराना यह मन्दिर मां काली का है। यहां से कैलाश पर्वत श्रंखलाएं स्पष्ट दिखाई देती हैं। इतनी ऊंचाई पर होने के कारण यहां कोई रहता तो नहीं है, परन्तु यहां बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, राजस्थान और गुजरात के लोग आज भी श्रद्धा से आते हैं। इतना दुर्गम रास्ता होने पर भी यहां सैंकडों लोग पहुंच जाते हैं। इस मन्दिर में बिजली की सुविधाएं होने पर भी श्रद्धालुओं ने सोलर सिस्टम से यहां प्रकाश की व्यवस्था की है।

नारकंडा से सीधा रास्ता तिब्बत बॉर्डर को जाता है। इस साफ-सुथरे मार्ग के दोनों ओर देवदार और चीड के लम्बे लम्बे वृक्ष हैं और इन वृक्षों से खूबसूरत बेलें लिपटी हुई हैं। इस शान्त मार्ग पर वाहन आदि पेट्रोल के धुएं से इन बेकसूर बेजुबान वृक्षों को विषपान कराते हुए चले जाते हैं। दिसम्बर, जनवरी में जब इस मार्ग पर बर्फ पड जाती है तो एक अन्य मार्ग काम में लिया जाता है।

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बुधवार, जुलाई 20, 2011

लोटस टेम्पल- धरती पर धडकता एक सपना

लेख: मीनाक्षी

संदीप पंवार के सौजन्य से

शताब्दियों से पर्यटन की राजधानी रही दिल्ली में यूं तो बहुत सी सुन्दर इमारतें हैं जिनमें शाहजहां द्वारा निर्मित अनेक स्थान है, पर इन दिनों सबसे सुन्दर इमारतों में लोटस टेम्पल (कमलाकृति वाला मन्दिर) अपने आप में एक अलग ही अप्रतिम सौन्दर्य लिये हुए है। हालांकि इसका उल्लेख राजधानी के अधिकृत नक्शे में नहीं है किन्तु दिल्ली दर्शन कराने वाली तमाम बसें इस स्थान पर आये बिना नहीं रहती हैं।

कुतुब मीनार, लाल किला, बिडला मन्दिर, राजघाट जैसे अनेक पर्यटन स्थलों को संजोये रखने वाली दिल्ली का एक खास आकर्षण लोटस टेम्पल भी है। दक्षिणी दिल्ली में नेहरू प्लेस के निकट 20.06 एकड में बने इस मन्दिर का निर्माण वास्तुकला का एक बेजोड नमूना है। यहां पर पर्यटकों को सुन्दर बगीचा, पहाडियों पर घूमने सरीखा आनन्द, खूबसूरत कृत्रिम तालाब तथा मन को शान्ति प्रदान करने वाला विशालकाय उपासना स्थल है। लगभग 34.27 मीटर ऊंचाई वाला यह मन्दिर परम्परागत भारत के दूसरे धार्मिकॊ जैसा नहीं है। इस उत्कृष्ट कमलाकृति वाले भवन में न तो किसी भगवान की मूर्ति है और न ही यहां पूजन-अर्चन होता है। उल्टे मुख्य मन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व पर्यटक को ताकीद दी जाती है कि वह शान्ति बनाये रखेगा।

राष्ट्रीय फूल कमल को मूर्त रूप देता यह मन्दिर नौ कृत्रिम तालाबों से घिरा हुआ है जिससे मुख्य भवन का तापमान भीषण गर्मी में भी बहुत कम रहता है। वातानुकूलित न होने के बावजूद यह शान्त भवन पर्यटकों को देर तक अपने पास ठहरने को बाध्य करता है और वे 28 पंखुडियों वाले कमल की शरण में सुख का अनुभव करते हैं।

इस मन्दिर को बहाई उपासना मन्दिर भी कहते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप का यह बहाई उपासना मन्दिर दुनिया के विभिन्न भागों में बने सात मन्दिरों में सबसे नया है। प्रत्येक भवन सृष्टि के रचयिया के स्मरण के लिये तथा मनुष्य और ईश्वर के बीच के अनन्य प्रेम की अभिव्यक्ति के लिये सभी धर्मों, जातियों, नस्लों और राष्ट्रों के लोगों को आमन्त्रित करता है।

नई दिल्ली के इस बहाई उपासना मन्दिर के शिल्प की प्रेरणा कमल के फूल से मिली है। यह अत्यन्त सुन्दर फूल पवित्रता का प्रतीक है और भारतवर्ष में प्रचलित धर्मों तथा उपासना पद्धतियों से अटूट रूप से जुडा हुआ है। यह मन्दिर पानी के नौ तालाबों से घिरा हुआ है, जो भवन के सौन्दर्य को और भी निखारते हैं। सभी बहाई मन्दिरों की एक सामान्य विशेषता यह है कि इन सब के नौ किनारे हैं। नौ सबसे बडा अंक है और यह व्यापकता, अभिन्नता और एकता का प्रतीक है।

बहाई मन्दिरों में बहाई धर्म के पवित्र ग्रंथ तथा इसके पहले प्रकट किये गये धर्मों के पावन ग्रंथों से निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार पाठ अथवा गान होता है। शेष समय में शान्तिपूर्ण प्रार्थना अथवा ध्यान के लिये सभी का स्वागत किया जाता है।

वैसे तो यह मन्दिर शाम सात बजे के बाद (सर्दियों में साढे पांच बजे तक ही) सोमवार को छोडकर खुले रहते हैं किन्तु रात के अंधकार में इसकी प्रकाश व्यवस्था बडी ही लुभावनी होती है।

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मंगलवार, जुलाई 19, 2011

कुफरी: कम नहीं होता सर्दियों में भी आकर्षण

संदीप पंवार के सौजन्य से

हिन्दुस्तान-तिब्बत राष्ट्रीय उच्च मार्ग पर शिमला से 16 किलोमीटर दूर स्थित कुफरी चारों ओर से बर्फीली पहाडियों से घिरा एक रमणीक स्थल है। यहां के प्राचीन भीमाकाली मन्दिर के समीप स्थित एक तलाई (तालाब) से इस स्थल का नामकरण कुफरी हुआ है क्योंकि स्थानीय भाषा में तलाई को कुफरी ही कहते हैं। यहां कभी कोटी, किंथल व पटियाला रियासतों की सीमाएं भी मिलती थीं, अतः इस स्थल का ऐतिहासिक महत्व भी है। समुद्र तल से 2623 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस स्थल को चीनी बंगला के नाम से भी जाना जाता है। चीनी बंगला वास्तव में अब एक कैफेटेरिया है, जिसके प्रांगण में दुर्लभ भोजपत्र के तीन वृक्ष लगे हुए हैं।

बर्फ के खेलों के लिये भी कुफरी मशहूर है। हिमाचल में स्कीइंग शुरू करने का सौभाग्य भी कुफरी को प्राप्त है। बर्फबारी के दिनों में तो यहां स्कीइंग प्रेमियों का सैलाब सा उमड पडता है। यहां पर महासू से कुफरी बाजार तक जाते तीन किलोमीटर लम्बे स्कीइंग स्लोप पर फिसलते हुए पहला पडाव ‘कुबेर’ के पास आता है। वहां से जम्प लगाकर स्कीयर कुफरी बाजार तक फिसलता हुआ पहुंच जाता है। हेलीकॉप्टर सुविधा उपलब्ध न होने पर स्कीयर ‘बर्फ-शू’ (एक विशेष प्रकार के जूते) पर लगी विशेष चपटी के बल पर फिर से बर्फीली ढलानों पर चढता हुआ हिमशिखर यानी महासू चोटी पर जा पहुंचता है और वहां से बर्फीली ढलानों पर फिसलने का रोमांच फिर से पा लेता है।

कुफरी में स्कीइंग की शुरूआत 1951-52 में हुई थी, जब ‘शिमला आइस स्केटिंग क्लब’ के सदस्यों ने इस स्थल को स्कीइंग के लिये उपयुक्त पाया था। उस समय कुफरी एक निर्जन सा गांव मात्र था। 1954 में जब श्रीमति इंदिरा गांधी के प्रयत्नों से ‘हिमाचल विंटर स्पोर्ट्स क्लब’ की स्थापना हुई, तो कुफरी के दिन फिरने लगे। श्रीमति गांधी इस क्लब की मुख्य संरक्षक थीं और हिमाचल प्रदेश के प्रथम मुख्यमन्त्री डॉ. यशवंत सिंह परमार इसके प्रथम अध्यक्ष थे।

1954 के बाद तो कुफरी की ढलानें काफी लोकप्रिय होने लगीं। विदेशों से यहां स्की-शूज, स्किट्स और अन्य उपकरण मंगवाये गये। एक स्की-लिफ्ट की स्थापना की गई। 1955 में यहां प्रथम स्कीइंग फेस्टिवल का आयोजन किया गया और 1968 में सर्वाधिक स्मरणीय और प्रथम स्कीइंग प्रतियोगिता यहां हुई। जिसे दस हजार से भी अधिक लोगों ने सांस थाम कर देखा। बाद के वर्षों में यहां कम बर्फबारी के कारण स्कीइंग प्रतियोगिता का स्थल ‘नारकण्डा’ कर दिया गया।

कुफरी में लगभग डेढ किलोमीतर की परिधि में इंदिरा टूरिस्ट पार्क भी स्थित है जहां एक लघु चिडियाघर बनाया गया है। बर्फ के ऊंट कहे जाने वाले याक पर यहां सवारी करने का लुत्फ ही निराला है। जो लोग स्कीइंग नहीं जानते, वे स्लेज द्वारा बर्फ पर फिसलने का रोमांच ले सकते हैं।

कुफरी से 26 किलोमीटर आगे घने वृक्षों से घिरा खूबसूरत स्थल चायल है। समुद्र तल से 2150 मीटर की ऊंचाई पर स्थित चायल को चैल के नाम से भी जाना जाता है। आजादी से पहले चायल पटियाला के महाराजाओं भूपेंद्र सिंह व यादवेंद्र सिंह की ग्रीष्मकालीन राजधानी भी थी। इन दोनों महाराजाओं की चूंकि क्रिकेट में बेहद रुचि थी, अतः उन्होंने यहां पर एक क्रिकेट मैदान भी बनवाया था जिसे दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट ग्राउण्ड भी माना जाता है। यह मैदान चारों ओर से विशालकाय लम्बे पेडों से घिरा हुआ है। यहां से बर्फ से ढकी हिमालय श्रंखला का सौन्दर्य अवलोकन किया जाता है। महाराजा पटियाला के ग्रीष्म स्थान को पैलेस होटल नाम दिया गया है।

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सोमवार, जुलाई 18, 2011

कसौली- सैलानियों का आकर्षण

लेख: भुवन मोहन

संदीप पंवार के सौजन्य से

चण्डीगढ से शिमला जाने वाली सडक की आधी दूरी पर स्थित है खूबसूरत हिल स्टेशन कसौली। कालका से करीब बीस किलोमीटर ऊपर पहाडी की ओर सडक पर एक मोड है। यहीं इस मोड के दूसरी ओर से हवा का झोंका यात्रियों को मन्त्रमुग्ध कर देता है। उसी मोड पर नैरो गेज की रेलवे क्रासिंग है जो कई बार बन्द मिलती है। नैरो गेज की यह रेल की पटरियां पहाड के चारों ओर बिखरी पडी हैं और उस पर दूर से ही रेंगती हुई दिखलाई पडती है- लाल, पीले, नीले और सफेद डिब्बे वाली रेलगाडी जिसे ‘ट्वाय ट्रेन’ के नाम से पुकारा जाता है।

बस के अलावा इस ट्वाय ट्रेन से धरमपुर तक जाया जा सकता है जो कसौली का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है। फिर यहां से किसी भी बस द्वारा कसौली पहुंचा जा सकता है। जो पर्यटक पैदल जाना चाहते हैं वे सडक मार्ग से करीब तीन घण्टे में कालका से कसौली पहुंच सकते हैं। पैदल जाने का अपना ही मजा है। पूरा मार्ग चीड के पेडों से भरा पडा है। कसौली समुद्र तल से 1927 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है जो शिमला से मात्र 280 मीटर कम है। यहां की जलवायु शिमला जैसी ही है। जो लोग रोज की भागदौड की जिन्दगी से ऊबकर कुछ दिन आराम करना चाहते हैं उनके लिये कसौली एक आदर्श जगह है।

कसौली की दो प्रमुख सडकें हैं- अपर माल और लोवर माल। इन सडकों के दोनों किनारों पर चीड, ओक और देवदार के वृक्षों से घिरे पुराने फैशन के मकान हैं। इस क्षेत्र में वाहनों के आने का समय निश्चित है जिसके कारण पर्यटक स्वच्छंद रूप से वादियों का लुत्फ उठाते हैं।

कसौली से रात में शिमला की छटा देखते ही बनती है। असंख्य टिमटिमाती बत्तियों से दीप्तिमान यह शहर रात में किसी परीलोक से कम नहीं लगता। इससे थोडा नीचे सबातू और उसके दायीं ओर दंगराई तथा सनावर में टिमटिमाती बत्तियां जुगनुओं का भ्रम पैदा कर देती हैं। इसके दक्षिण में स्थित चण्डीगढ तथा अम्बाला की विस्तृत बिजलियां भी दिखती हैं। खुले और साफ मौसम में इन शहरों को दिन में भी देखा जा सकता है। यहां पर एक छोटा सा बाजार भी है जो सडक की ढलान पर स्थित है।

प्रत्येक साल अक्टूबर महीने के प्रथम चार दिनों में कसौली में मेले जैसी हलचल नजर आती है क्योंकि इस समय सनावर में स्कूल का स्थापना दिवस मनाया जाता है जहां बच्चों के माता-पिता कोने-कोने से यहां आते हैं।

मानसून के दिनों में वर्षा की बौछार पडते ही कसौली की हरीतिमा और भी बढ जाती है। बारिश थमी नहीं कि चारों तरफ कुहासे का साम्राज्य हो जाता है और उसमें घूमने निकल पडते हैं पर्यटक।

कसौली की सबसे ऊंची जगह है मंकी प्वाइंट जहां से दिखती है प्रकृति की दूर-दूर की अनुपम छटा। मंकी प्वाइंट तथा दूसरी ओर गिलबर्ट पहाडी पर लोग सुबह-शाम टहलने निकलते हैं। इन दोनों जगहों पर पिकनिक मनाने वालों की हमेशा भीड लगी रहती है। कसौली की अच्छी आबोहवा के कारण यहां पर क्षय रोगियों के लिये एक सैनेटोरियम बनाया गया है।

यहां एक चर्च भी है जिसमें पुराने जमाने के विभिन्न प्रकार के बूंदीदार रंगीन ग्लास वाले दरवाजे तथा खिडकियों का शिल्प देखते ही बनता है। कसौली क्लब तथा प्राइवेट होटलों के अलावा हिमाचल पर्यटन विभाग ने भी यहां एक होटल बनवाया है जहां हमेशा पर्यटकों की भीड जुटी रहती है।

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रविवार, जुलाई 17, 2011

चैल- अदभुत पर्यटक स्थल

यात्रा वृत्तान्त: बालकृष्ण गुप्त

संदीप पंवार के सौजन्य से

हिमालय को भारत माता का मुकुट कहा जाता है। इस उपाधि की सत्यता का अनुभव तब होता है जब कोई हिमालय की गोद में विचरण करे। यूं तो हिमालय घाटी में दर्जनों स्थान अदभुत और अप्रतिम हैं, पर चैल की बात ही दूसरी है। शिमला की पहाडियों में स्थित चैल आज एक पर्यटक स्थल के रूप में जाना जाता है। चैल के लिये मेरी यात्रा दिल्ली से शुरू होती है। सडक मार्ग पर पानीपत, करनाल, अम्बाला और कालका की लगभग पांच घण्टे में 300 किलोमीटर की दूरी तय करता है। कालका से शिमला रोड पर यात्रा प्रारम्भ होती है। और तब हम 87 किलोमीटर सोलन, कण्डाघाट होकर चैल पहुंचते हैं। कण्डाघाट से दो रास्ते हैं- एक शिमला जाता है दूसरा चैल। यहां से चैल 29 किलोमीटर है।

कण्डाघाट से चलते ही हम जब लगभग 3000 फीट की ऊंचाई पर होते हैं, तब ऐसा लगता है कि हमारा चैल का चुनाव गलत हो गया। यह क्षेत्र जंगल की आग का शिकार था। चीड के वृक्ष जिनमें एक बैरोजा जैसा पदार्थ निकलता है जो जंगल में लगी सूखी घास की आग को पकडता है। उससे बडे बडे वृक्ष नीचे के हिस्से में या तो जले हुए नजर आ रहे थे या उनकी पत्तियां सूख रही थीं। हम आगे बढ रहे थे। चैल जब 10 किलोमीटर रह गया तब हम 6000 फीट से ऊपर थे। अब चारों ओर देवदार, ओक के वृक्षों का घना जंगल शुरू हो गया। सडक के किनारे सेब, खुमानी, चैरी आदि के हरे भरे वृक्ष, थकान दूर करने वाली ठण्डी हवा का संगीत जैसा स्वर आनन्द विभोर करने लगा।

अब हम चैल में थे। छोटा सा बाजार, यात्रियों के ठहरने के लिये छोटे-बडे होटल और रेस्टोरेण्ट दिखाई दिये। यहां शिमला, कुफरी, सोलन से आने वाली बसों के ठहरने का एक चौक है। चैल का अपना एक इतिहास है। महाराजा पटियाला भूपेंद्र सिंह पर यह प्रतिबन्ध लगा कि वह (समर कैपिटल ऑफ ब्रिटिश इन इण्डिया) भारतवर्ष में ब्रिटिश शासकों के लिये गर्मियों की राजधानी शिमला में प्रवेश नहीं कर सकते। तब उन्होंने अपने लिये गर्मियों की राजधानी बनाने के लिये चैल को चुना। महाराजा पटियाला का शिमला में प्रवेश निषेध का कारण आज भी शिमला में स्कैण्डल प्वाइण्ट है। कहा जाता है कि इस स्थान से महाराजा पटियाला ने उस समय के तत्कालीन वायसराय के परिवार की लडकी को किडनैप किया था।

चैल से शिमला 45 किलोमीटर है। किन्तु रास्ते से शिमला की बत्तियां दीवाली जैसी नजर आती हैं। चैल की ऊंचाई 7000 फीट थी जो ब्रिटिश शासन के अधिकार में शिमला से अधिक थी। महाराजा पटियाला द्वारा यहां रहने के लिये एक भव्य भवन का निर्माण किया गया। महाराजा को क्रिकेट एवं पोलो का शौक था। महाराजा द्वारा पहाडों की सबसे ऊंची चोटी पर जिसकी ऊंचाई लगभग 8000 फीट है, एक विशाल क्रिकेट मैदान का निर्माण सन 1892 में किया गया था। यह मैदान दुनिया में सबसे अधिक ऊंचाई पर है। विशाल मैदान के चारों ओर ऊंची बाउण्ड्री है। मैदान के नीचे सैनिक स्कूल है। सैनिक स्कूल में 70 प्रतिशत मिलिट्री में कार्यरत व्यक्तियों के बच्चे, 20 प्रतिशत मिलिट्री अधिकारी एवं 10 प्रतिशत बाहर के बच्चों के लिये स्थान है। मिलिट्री स्कूल में भारतवर्ष के सभी प्रान्तों के बच्चे पढते हैं। इनके खेलने का मैदान क्रिकेट ग्राउण्ड ही है।

महाराजा पटियाला द्वारा 1891 में निर्मित महाराजा पैलेस व इसके साथ 75 एकड में फैली पहाडियां हिमाचल टूरिज्म विभाग ने सन 1972 में खरीद ली थीं। महाराजा पैलेस होटल में बदल गया। पैलेस होटल की सुन्दर साज सज्जा की गई। होटल में महाराजा सूट, महारानी सूट, प्रिंस सूट, प्रिंसेस सूट, सुपर डीलक्स सूट, डीलक्स रूम, सेमी डीलक्स रूम एवं रेगुलर रूम यात्रियों के निवास के लिये हैं। साथ ही लग्जरी राजगढ काटेज है जिसमें चार आलीशान पृथक पृथक सूट हैं। राजगढ काटेज कभी महाराजा के उन अतिथियों के ठहरने के लिये बनी थी जो महाराजा से मिलने आते थे। चैल पहुंचने वाले पर्यटकों की संख्या इतनी अधिक है कि बिना आरक्षण प्राप्त किये यात्री को भारी कठिनाई का सामना करना पडता है।

आरक्षण न होने के कारण मुझे चैल पहुंचकर भारी कठिनाई का सामना करना पडा। पैलेस होटल में कोई रूम नहीं था, सभी आने जाने वाले यात्रियों की लम्बे समय तक बुकिंग थी। मुझे चैल मार्केट में बने मोनाल होटल में एक सूट मिला- सूट में दो डबल बेडरूम व एक ड्राइंग रूम था। मैं व मेरे साथी सुरेश चंद्र जिन्दल सपत्नीक थे। हम लोग मोनाल होटल में एक सप्ताह रहे। मोनाल होटल के मालिक श्री दलजीत सिंह मिलिट्री स्कूल से अवकाश प्राप्त हैं। वह तीन विषयों में एम. ए. हैं। उनकी विनम्रता की सराहना करने के लिये शब्द छोटे पडेंगे। इसके पश्चात हमें होटल पैलेस में दो लॉज हटकर मिल गईं।

इस पहाड पर पांच साधारण लॉज हट्स व एक हनीमून डेन है। हनीमून हट अस्पताल आकर्षक है। हनीमून डेन के दरवाजे पर लिखा है ‘लव इज दा हैप्पीएस्ट फीलिंग दौर कुड एवर हैप्पन टू एनी वन, लव इज एटरनल।’ हनीमून डेन के सामने खाली घुमावदार चौक है जहां गाडियां खडी होती हैं। सामने एक झूला है, इस पर बैठकर जहां दो हजार फीट नीचे कुछ छोटे-छोटे गांव, खेत नजर आते हैं। वही सामने पहाडों की चोटियां एक के पीछे एक काफी दूर तक हैं। उनके पश्चात बर्फ से ढकी पहाडियां नजर आती हैं। हनीमून हट आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न है। हट में बाथरूम, किचिन, साथ में एक बडा हॉल है। हॉल में पर्शियन कालीन दर्शनीय पलंग, आदमकद छह बडे शीशे, छत में दो बडे झाड व ब्रिटिश महिलाओं के आकर्षक चित्र हनीमून डेन के नाम को धन्य करते हैं।

शाम को अंधेरा होते ही हनीमून हट के सामने शिमला की दीवाली जैसी रोशनी अत्यन्त आकर्षक लगती है। कहा जाता है कि शिमला में प्रवेश निषेध के पश्चात महाराजा पटियाला इसी स्थान पर अपनी महफिल शिमला के ठीक सामने जमाते थे। महाराजा का चैल में आज भी लॉसम पैलेस है जिसमें राजमाता महेंद्र कौर रहती हैं। मैंने उनसे भेंट करने का सौभाग्य भी प्राप्त किया। राजमाता का सम्बन्ध यूपी से उस समय रहा था जब श्री सम्पूर्णानंद मुख्यमन्त्री थे। राजमाता पण्डित जवाहरलाल के समय में राज्य सभा की मेम्बर भी रही हैं। राजमाता जहां आकर्षक व्यक्तित्व की धनी हैं, वही अतिथि के प्रति उनका व्यवहार अत्यन्त सराहनीय है। मैंने उन्हें एक पुस्तक बाबा पृथ्वीसिंह आजाद की जीवनी जब भेंट की तो वह बहुत प्रसन्न हुईं।

ब्लॉसम पैलेस से आगे चैल का एक सबसे ऊंचा नंगा पहाड है। वहां तक गाडी जाने का रास्ता है। इसकी ऊंचाई से एक तरफ उत्तराखण्ड के देहरादून, मसूरी की पहाडियां, दूसरी ओर चीन की सरहद, पीछे बर्फ से ढके पहाड एवं चारों ओर तीन-चार हजार फुट तक की नीचाई में पगडण्डियों वाले छोटे-छोटे गांव, हरे भरे खेत इतने आकर्षक लगते हैं कि लगातार देखने पर भी तृप्ति नहीं होती।

ये अब तक नैनीताल, मसूरी, शिमला, कुल्लू, मनाली एवं पहाडों पर बसे अनेक तीर्थ स्थलों में गया है। चैल में रहने के पश्चात मैंने यह अनुभव किया कि इतनी घनी देवदार और ओक के वृक्षों की हरियाली एवं शान्तिपूर्ण वातावरण जो धूल, धुआं, कोलाहल एवं भीड से मुक्त है, मैंने कहीं नहीं पाया। चैल की दूरी भी दिल्ली से उतनी ही है जितनी मसूरी की है। चैल में आध्यात्मिक वातावरण से ओतप्रोत स्वामी प्रकाशानन्द का एक आश्रम, चैल से एक किलोमीटर दूर सिकोडी ग्राम में है। इस आश्रम की शान्ति, ठहरने की उत्तम व्यवस्था एवं स्वामी जी के स्नेहिल व्यवहार को किसी भी एकान्त एवं शान्ति प्रेमी के लिये आदर्श कहा जा सकता है।

पहाडों में स्केटिंग के लिये प्रसिद्ध कुफरी चैल से 30 किलोमीटर है। यह रास्ता अत्यन्त रमणीक है। चैल से डेढ किलोमीटर दूर सबसे ऊंचे पहाड पर सिद्ध बाबा का मन्दिर है। आसपास के निवासियों की इस मन्दिर के प्रति अपार श्रद्धा है। चैल एक ऐसा पर्यटक स्थल है जहां बार-बार जाने को जी चाहे- इतना ही कह सकता हूं।


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शनिवार, जुलाई 16, 2011

जादुई नजारे सोलंग के

परमजीत कौर बेदी

बहुत कम ऐसे पर्वतीय स्थल होते हैं जो न केवल हर मौसम में सैलानियों को लुभाते हैं बल्कि रोमांच प्रेमी भी सालभर वहां खिंचे चले आते हैं। हिमाचल प्रदेश की मनाली घाटी में स्थित सोलंग नाला भी ऐसा ही एक स्थल है जो सैलानियों, साहसिक पर्यटन के शौकीनों, रोमांचक क्रीडा प्रेमियों और फिल्मी हस्तियों को बार-बार यहां आने का न्योता देता दिखता है। हर मौसम में सोलंग का मिजाज देखते ही बनता है। गर्मियों में जहां सोलंग में बिछी हरियाली सहसा ही मन मोह लेती है, वही सर्दियों में यहां पहुंचकर ऐसा लगता है जैसे हम बर्फ के साम्राज्य में आ गये हों।

सोलंग नाले के इर्द-गिर्द बसी है सोलंग घाटी। यह नाला ब्यास नदी का मुख्य स्त्रोत माना जाता है। नाले के शीर्ष पर ब्यास कुण्ड स्थित है। कुल्लू-मनाली घाटियों की ढलानें और उफनती नदियां वैसे भी रोमांच प्रेमियों के लिये स्वर्ग से कम नहीं है। लेकिन सोलंग घाटी ने सर्वाधिक ख्याति अर्जित करके देश-विदेश के पर्यटन मानचित्र पर अपना नाम अंकित करवाया है। गर्मियों में जहां सोलंग में आकाश में उडने के साहसिक खेलों का आयोजन होता है, वहीं सर्दियों में यहां की बर्फानी ढलानों पर फिसलता रोमांच देखते ही बनता है।

हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे स्थल हैं जहां विभिन्न साहसिक खेलों का आयोजन किया जाता है लेकिन सोलंग एकमात्र ऐसा स्थल है जहां आकाश में उडने के रोमांचक खेलों से लेकर हिमानी क्रीडाओं तक का आयोजन होता है। यहां कई बार राष्ट्रीय शीतकालीन खेल आयोजित हो चुके हैं। फ्रांस या जापान की तरह सोलंग की ढलानों को विशेष रूप से स्कीइंग के लिये तैयार नहीं किया गया बल्कि यहां की ढलानें स्कीइंग के लिये दुनिया की बेहतरीन प्राकृतिक ढलानों में शुमार की जाती हैं। मनाली स्थित पर्वतारोहण संस्थान तो 1961 से यहां स्कीइंग का प्रशिक्षण दे रहा है और यहां के कई युवक-युवतियों ने इस संस्थान से स्कीइंग का प्रशिक्षण हासिल करने के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन किया है। डिक्की डोलमा और राधा देवी जैसी एवरेस्ट विजेता युवतियों ने भी सोलंग की बर्फीली ढलानों पर ही प्राथमिक प्रशिक्षण लिया था।

हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत मनाली नगर से सोलंग की दूरी महज 13 किलोमीटर है। समुद्र तल से 2480 मीटर की ऊंचाई पर स्थित सोलंग में प्रकृति की अनुपम छटा देखते ही बनती है। रई, तोच्च और खनोर के फरफराते पेड वातावरण में संगीत घोलते प्रतीत होते हैं। पृष्ठभूमि में चांदी से चमकते खूबसूरत पहाड हैं, जिनका सौन्दर्य शाम की लालिमा में और भी निखर जाता है। मनाली से सोलंग टैक्सी, कार या दुपहिया वाहन द्वारा भी पहुंचा जा सकता है और सोलंग के सौन्दर्य को आत्मसात करके शाम को आप बडे आराम से मनाली पहुंच सकते हैं। रुकना चाहें तो यहां कुछ रिजॉर्ट भी हैं।

सर्दियों में जब यहां की पर्वत श्रंखलाएं बर्फ की सफेद चादर में लिपट जाती हैं तो यहां का नजारा ही बदल जाता है। जिधर निगाह दौडायें, बर्फ ही बर्फ। जमीन पर जमी बर्फ, दरख्तों पर लदी बर्फ, नदी-नालों पर तैरती बर्फ और पहाडों के सीने से लिपटी बर्फ- बडा अदभुत मोहक दृश्य होता है। आप इस बर्फ को कैमरे में भी कैद कर सकते हैं, इसे मुट्ठियों में भरकर हवा में भी उछाल सकते हैं और बर्फ में दूर तक फिसलते चले जाने का रोमांच भी ले सकते हैं। सोलंग घाटी जब बर्फ से श्रंगार करती है तो इसका नैसर्गिक रूप देखते ही बनता है और इसी रूप के मोहपाश में बंधकर सैलानी यहां से जाने का नाम नहीं लेते। नवविवाहित जोडे यही मधुमास की स्मृतियां संजोते हैं और रोमांच प्रेमी यहां के ढलानों से फिसलकर गुदगुदाती बर्फ का स्पर्श पाते हैं।

गर्मियों में तो सोलंग का रूप ही बदला होता है... सर्दियों से एकदम अलग। सोलंग में बिछी हरियाली सहसा ही मन मोह लेती है। दूर-दूर तक हरियावल जंगल, पेड-पौधे और वनस्पति धरती पर हरा गलीचा बिछा होने का भ्रम पैदा करती हैं। घाटी में जब रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं तो एक मादक सुगंध चहुं ओर बिखर जाती है। प्रकृति कितने रूप बदलती है, यह सोलंग आकर पता चलता है। मस्त हवा के झोंके, पंछियों का कलरव और दूर कहीं झरने का कोलाहल समूचे परिवेश को जादुई बना देता है। गर्मियों में भी यहां सैलानियों की खूब रेल-पेल रहती है और लाहौल घाटी जाने वाले सैलानी यहां जरूर पडाव डालते हैं। सिर्फ सैलानी ही नहीं, फिल्मी दुनिया के लोग भी सोलंग के सम्मोहन में बंधे हैं और शूटिंग के लिये उन्होंने सोलंग को कश्मीर का पर्याय माना है। कई चर्चित फिल्मों की शूटिंग सोलंग की खूबसूरत वादियों में हो चुकी है। स्थानीय निवासियों के लिये सोलंग ‘फिल्म नगरी’ बनता जा रहा है।

यूनेस्को ने 1977 में सोलंग नाला को सम्भावित यूनेस्को बायोस्फीयर रिजर्व के रूप में प्रस्तावित किया था। लेकिन उस समय उस पर आगे कुछ नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि आज मानवीय दखल से इस समूचे इलाके की पारिस्थितिकी संकट में है।

सोलंग में पर्यटकों की आमद को देखते हुए कई दुकानें व स्टाल लगने शुरू हो गये हैं। हिमाचली वेशभूषा में आप यहां फोटो भी खिंचवा सकते हैं। सोलंग में एक बार की गई यात्रा की मोहक स्मृतियां ताउम्र के लिये मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 2 जून 2009 को प्रकाशित हुआ था।


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शुक्रवार, जुलाई 15, 2011

श्रीखण्ड- अप्सरा पर मोहित होना भस्मासुर को महंगा पडा

लेख: राजेश शर्मा

संदीप पंवार के सौजन्य से

देवी-देवताओं की भूमि हिमाचल प्रदेश के प्रत्येक धार्मिक स्थल का पौराणिक महत्व है। ऐसा ही एक धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व का स्थान है- श्रीखण्ड कैलाश। श्रीखण्ड कैलाश यात्रा बहुत ही कठिन व जोखिमपूर्ण होने के साथ-साथ बेहद रोमांचकारी तथा तन-मन को पुलकित करने वाली है। श्रीखण्ड कैलाश समुद्र तल से लगभग 18500 फुट की ऊंचाई पर जिला शिमला व कुल्लू की सीमाओं पर स्थित है। श्रीखण्ड कैलाश के दर्शनार्थ पहुंचने के दो मार्ग हैं- एक मार्ग जिला शिमला के उपमण्डल रामपुर बुशहर से करीब 25 किलोमीटर दूर ज्योरी नामक स्थान से व दूसरा मार्ग निरमंड तहसील के बागी पुल से होकर जाता है। श्रीखण्ड कैलाश यात्रा निरन्तर ख्याति प्राप्त करती जा रही है।

कहते हैं कि भगवान शिव ने भस्मासुर को उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान दिया कि वह जिस किसी के भी सिर पर हाथ रखेगा, वह भस्म हो जायेगा। यह वरदान मिलने के बाद दुर्भावना से प्रेरित भस्मासुर ने शिव पत्नी मां पार्वती को पाने की इच्छा से भगवान शिव को ही भस्म करना चाहा तथा वह भगवान शिव के पीछे दौडा। भगवान शिव भस्मासुर से बचते हुए निरमंड (जिला कुल्लू) के समीप ‘देओं’ गुफा में छिप गये। तत्क्षण गुफा के द्वार पर एक मकडी ने जाला डाल दिया।

जब भस्मासुर वहां पहुंचा तो मकडी का जाला देखकर उसने यह सोचा कि इस गुफा में भगवान शिव नहीं हो सकते तथा यहीं कहीं अदृश्य हुए हैं। उधर. जब भगवान शिव को जब गुफा के अन्दर काफी समय हो गया तो तीनों लोकों में उनके बिना सभी कार्य अवरुद्ध हो गये। ऐसी स्थिति में भगवान श्री विष्णु व प्रजापति ब्रह्मा चिंतित हो उठे। जब दिव्य दृष्टि द्वारा प्रजापति ब्रह्मा को भगवान शिव की स्थिति का पता चला तो उन्होंने श्री विष्णु को भगवान शिव की सहायता के लिये भेजा।

भगवान विष्णु एक सुन्दर अप्सरा का रूप धारण कर, जहां भस्मासुर भगवान शिव की प्रतीक्षा कर रहा था, पहुंचे। उस अप्सरा के रूप-यौवन को देखकर भस्मासुर उस पर मोहित हो गया व उसे पाने की इच्छा से उसके साथ गन्धर्व विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे अप्सरा ने सशर्त स्वीकार कर लिया और तय हुआ कि भस्मासुर यदि उसे गन्धर्व नृत्य में परास्त कर दे, तभी वह भस्मासुर से विवाह करेगी। भस्मासुर ने बिना सोचे-विचारे यह शर्त स्वीकार कर ली। जब दोनों नृत्य करते हुए वर्तमान में भीम द्वार (श्रीखण्ड कैलाश) के समीप पहुंचे तो एक ऐसी ही मुद्रा में जब भस्मासुर ने अपना हाथ अपने ही सिर पर रखा तो वह उसी समय भस्म हो गया।

उसके उपरान्त श्री विष्णु अपने मूल रूप में आ गये तथा प्रजापति ब्रह्मा भी अन्य देवताओं के साथ वहां पहुंच गये। उन्होंने भगवान शिव को गुफा से बाहर आने के लिये पुकारा, तब भगवान शिव ने कहा कि मैं गुफा द्वार से बाहर नहीं आ सकता, क्योंकि गुफा द्वार पर मकडी ने अपना जाला बुनकर अपना घर बना लिया है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने भगवान शिव को गुफा में स्थित ऊपरी दरार से बाहर आने को कहा। भगवान शिव जिस दरार से बाहर आये, उसे ही श्रीखण्ड कैलाश कहा जाता है।

एक अन्य जनश्रुति के अनुसार, श्रीखण्ड कैलाश में मां पार्वती ने तपस्या करके भगवान शिव को प्राप्त किया था, जो शिला रूप में स्थापित हो गये। बताते हैं कि भगवान शिव की प्रतीक इस पत्थर की शिला (श्रीखण्ड) पर बर्फ नहीं टिकती है, जबकि वर्ष भर चारों ओर बर्फ ही बर्फ रहती है। श्रीखण्ड कैलाश की यात्रा जुलाई महीने से लेकर पंद्रह अगस्त तक की जा सकती है। श्रीखण्ड कैलाश की पवित्र छडी यात्रा महन्त दशनामी पंचजूना अखाडा निरमण्ड के नेतृत्व में एकादशी के दिन, जोकि आमतौर पर जुलाई का महीना होता है, से शुरू होकर विभिन्न पडावों से होते हुए गुरू पूर्णिमा के दिन श्रीखण्ड कैलाश के दर्शन करती है। इस यात्रा के रास्ते के दौरान स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा यात्रियों के लिये लंगर व ठहरने के लिये तम्बुओं का प्रबन्ध भी किया जाता है। हिमाचल प्रदेश सरकार ने इस यात्रा को मान्यता प्रदान की हुई है।

इस यात्रा के दौरान अनेक नयनाभिराम व दर्शनीय स्थल आते हैं जिनमें जौ, सिंह गार्ड, कुन्स, काली घाटी, काली मन्दिर, भीम द्वार, खूनी नाला व नयन सरोवर आदि हैं। कहते हैं कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों में महाबली भीम ने यहां बकासुर का वध किया था। यहां लाल रंग के बहते पानी को इस घटना का साक्षी माना जाता है। श्रीखण्ड कैलाश के समीप पडे बडे-बडे ईंटनुमा पत्थरों के बारे में बताते हैं कि इनसे पांडवों ने स्वर्ग के लिये सीढियों का निर्माण शुरू किया था परन्तु सुबह होने पर इसे बन्द कर दिया था। भीम द्वार, श्रीखण्ड कैलाश यात्रा का अन्तिम पडाव है। यहां से लगभग चार किलोमीटर दूरी पर नयन सरोवर है, जहां यात्री स्नान करने के पश्चात श्रीखण्ड कैलाश के दर्शनों के लिये आगे बढते हैं। श्रद्धालुगण भगवान शिव की धूप-दीप, बिल्व पत्र आदि से पूजा अर्चना करते हैं। नारियल तथा सूखे मेवे चढाते हैं तथा भगवान शिव से अपनी मनोकामनाएं पूरी करने की प्रार्थना करते हैं। श्रीखण्ड कैलाश की शिला में स्थित दरार में कई लोग सिक्के भी डालते हैं। श्रीखण्ड कैलाश के आसपास का पूरा पर्वतीय क्षेत्र बिल्कुल सुनसान व वनस्पति विहीन है।


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