बुधवार, जून 08, 2011

कठिन यात्रा है रुद्रनाथ की

लेख: रविशंकर जुगरान

महाकवि कालिदास ने जिस हिमालय को देवात्मा कहा है उसी की गोद में बसा है उत्तराखण्ड का गढवाल क्षेत्र। स्कंदपुराण में इस क्षेत्र को केदारखण्ड कहा गया है। प्राचीन काल से ही यहां का वैभव, शान्त और पावन वातावरण ऋषियों, तपस्वियों और मनीषियों को आकर्षित करता है। यहां भव्य शिखरों और दूर-दूर तक फैली घाटियों के बीच प्राचीन मन्दिरों, गुफाओं, तप्तस्थलियों, तप्तकुण्डों और नैसर्गिक जलाशयों के साथ जिस विहंगम दृश्य से सामना होता है वो देवलोक की कल्पना को साकार कर देता है। पंचकेदारों में चौथे केदार रुद्रनाथ की यात्रा के समय इसका एहसास होता है। एक ऐसी यात्रा, जो वास्तव में दिव्य और अदभुत है।

समुद्र तल से 3290 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रुद्रनाथ मन्दिर भव्य प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण है। रुद्रनाथ मन्दिर में भगवान शंकर के एकानन यानी मुख की पूजा की जाती है जबकि सम्पूर्ण शरीर की पूजा नेपाल की राजधानी काठमाण्डू के पशुपतिनाथ में की जाती है। रुद्रनाथ मन्दिर के सामने से दिखाई देती नंदा देवी और त्रिशूल की हिमाच्छादित चोटियां यहां का आकर्षण बढाती हैं।

इस स्थान की यात्रा के लिये सबसे पहले गोपेश्वर पहुंचना होता है जोकि चमोली जिले का मुख्यालय है। गोपेश्वर एक आकर्षक हिल स्टेशन है जहां पर ऐतिहासिक गोपीनाथ मन्दिर है। इस मन्दिर का ऐतिहासिक लौह त्रिशूल भी आकर्षण का केन्द्र है। गोपेश्वर पहुंचने वाले यात्री गोपीनाथ मन्दिर और लौह त्रिशूल के दर्शन करना नहीं भूलते। गोपेश्वर से करीब पांच किलोमीटर दूर है सगर गांव। बस द्वारा रुद्रनाथ यात्रा का यही अन्तिम पडाव है। इसके बाद जिस दुरूह चढाई से यात्रियों और सैलानियों का सामना होता है वो अकल्पनीय है।

सगर गांव से करीब चार किलोमीटर चढने के बाद यात्री पहुंचता है पुंग बुग्याल। यह लम्बा चौडा घास का मैदान है जिसके ठीक सामने पहाडों की ऊंची चोटियों को देखने पर सर पर रखी टोपी गिर जाती है। गर्मियों में अपने पशुओं के साथ आसपास के गांवों के लोग यहां डेरा डालते हैं, जिन्हें पालसी कहा जाता है। अपनी थकान मिटाने के लिये थोडी देर यात्री यहां विश्राम करते हैं। ये पालसी थके-हारे यात्रियों को चाय आदि उपलब्ध कराते हैं। आगे की कठिन चढाई में जगह-जगह मिलने वाली चाय की यही चुस्की अमृत का काम करती है। पुंग बुग्याल में कुछ देर आराम करने के बाद कलचात बुग्याल और फिर चक्रघनी की आठ किलोमीटर की खडी चढाई ही असली परीक्षा होती है। चक्रघनी जैसे कि नाम से प्रतीत होता है कि चक्र के समान गोल। इस दुरूह चढाई को चढते-चढते यात्रियों का दम निकलने लगता है।

चढते हुए मार्ग पर बांज, बुरांश, खर्सु, मोरु, फायनिट और थुनार के दुर्लभ वृक्षों की घनी छाया यात्रियों को राहत देती रहती है। रास्ते में कहीं कहीं पर मिलने वाले मीठे पानी की जलधाराएं यात्रियों के गले को तर करती हैं। इस घुमावदार चढाई के बाद थका हारा यात्री ल्वीटी बुग्याल पहुंचता है जो समुद्र तल से करीब 3000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। ल्वीटी बुग्याल से गोपेश्वर और सगर का दृश्य तो देखने लायक है ही, साथ ही रात में दिखाई देती दूर पौडी नगर की टिमटिमाती लाइटों का आकर्षण भी कमतर नहीं। ल्वीटी बुग्याल में सगर और आसपास के गांव के लोग अपनी भेड-बकरियों के साथ छह महीनों तक डेरा डालते हैं। अगर पूरी चढाई एक दिन में चढना कठिन लगे तो यहां इन पालसियों के साथ एक रात गुजारी जा सकती है।

यहां की चट्टानों पर उगी घास और उस पर चरती बकरियों का दृश्य पर्यटकों को अलग ही दुनिया का एहसास कराता है। यहां पर कई दुर्लभ जडी-बूटियां भी मिलती हैं। ल्वीटी बुग्याल के बाद करीब तीन किलोमीटर की चढाई के बाद आता है पनार बुग्याल। दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित पनार रुद्रनाथ यात्रा मार्ग का मध्य द्वार है जहां से रुद्रनाथ की दूरी करीब ग्यारह किलोमीटर रह जाती है। यह ऐसा स्थान है जहां पर वृक्ष रेखा समाप्त हो जाती है और मखमली घास के मैदान यकायक सारे दृश्य को परिवर्तित कर देते हैं। अलग-अलग किस्म की घास और फूलों से लकदक घाटियों के नजारे यात्रियों को मोहपाश में बांधते चले जाते हैं। जैसे जैसे यात्री ऊपर चढता रहता है प्रकृति का उतना ही खिला रूप उसे देखने को मिलता है। इतनी ऊंचाई पर इस सौन्दर्य को देखकर हर कोई आश्चर्यचकित रह जाता है।

पनार में डुमुक और कठगोट गांव के लोग अपने पशुओं के साथ डेरा डाले रहते हैं। यहां पर ये लोग यात्रियों को चाय आदि उपलब्ध कराते हैं। पनार से हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों का जो विस्मयकारी दृश्य दिखाई देता है वो दूसरी जगह से शायद ही दिखाई दे। नंदादेवी, कामेट, त्रिशूली, नंदाघुंटी आदि शिखरों का यहां बडा नजदीकी नजारा होता है। पनार से आगे पित्रधार नामक स्थान है। पित्रधार में शिव, पार्वती और नारायण के मन्दिर हैं। यहां पर यात्री अपने पित्रों के नाम के पत्थर रखते हैं। यहां पर वन देवी के मन्दिर भी हैं जहां पर यात्री श्रंगार सामग्री के रूप में चूडी, बिन्दी और चुनरी चढाते हैं। रुद्रनाथ की चढाई पित्रधार में खत्म हो जाती है और यहां से हल्की उतराई शुरू हो जाती है।

रास्ते में तरह-तरह के फूलों की खुशबू यात्री को मदहोश करती रहती है। यह भी फूलों की घाटी का आभास देती है। पनार से पित्रधार होते हुए करीब दस-ग्यारह किलोमीटर के सफर के बाद यात्री पहुंचता है पंचकेदारों में चौथे केदार रुद्रनाथ में। यहां विशाल प्राकृतिक गुफा में बने मन्दिर में शिव की दुर्लभ पाषाण मूर्ति है। यहां शिवजी गर्दन टेढी किये हुए हैं। माना जाता है कि शिवजी की यह दुर्लभ मूर्ति स्वयंभू है यानी अपने आप प्रकट हुई है। इसकी गहराई का भी पता नहीं है। मन्दिर के पास वैतरणी कुण्ड में शक्ति के रूप में पूजी जाने वाली शेषशायी विष्णु जी की मूर्ति भी है। मन्दिर के एक ओर पांच पांडव, कुंती, द्रौपदी के साथ ही छोटे-छोटे मन्दिर मौजूद हैं। मन्दिर में प्रवेश करने से पहले नारद कुण्ड है जिसमें यात्री स्नान करके अपनी थकान मिटाता है।

रुद्रनाथ का समूचा परिवेश इतना अलौकिक है कि यहां के सौंदर्य को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। शायद ही ऐसी कोई जगह हो जहां हरियाली न हो, फूल न खिले हों। रास्ते में हिमालयी मोर, मोनाल से लेकर थार, थुनार और मृग जैसे जंगली जानवरों के दर्शन तो होते ही हैं, बिना पूंछ वाले शाकाहारी चूहे भी आपको रास्ते में फुदकते मिल जायेंगे। भोज पत्र के वृक्षों के अलावा ब्रह्मकमल भी यहां की ऊंचाईयों में बहुतायत में मिलते हैं। यूं तो मन्दिर समिति के पुजारी यात्रियों की हर सम्भव मदद की कोशिश करते हैं लेकिन यहां खाने-पीने और रहने की व्यवस्था स्वयं करनी पडती है। जैसे कि रात में रुकने के लिये टेंट हों और खाने के लिये डिब्बाबन्द भोजन या अन्य चीजें। रुद्रनाथ के कपाट परम्परा के अनुसार खुलते-बन्द होते हैं। शीतकाल में छह माह के लिये रुद्रनाथ की गद्दी गोपेश्वर के गोपीनाथ मन्दिर में लाई जाती है जहां पर शीतकाल के दौरान रुद्रनाथ की पूजा होती है। आप जिस हद तक प्रकृति की खूबसूरती का अन्दाजा लगा सकते हैं, यकीन मानिये यह जगह उससे ज्यादा खूबसूरत है।

कैसे पहुंचें

देश के किसी कोने से आपको पहले ऋषिकेश पहुंचना होगा। ऋषिकेश से ठीक पहले तीर्थनगरी हरिद्वार दिल्ली, हावडा से बडी रेल लाइन से जुडी है। देहरादून के निकट जौलीग्रांट में हवाई अड्डा भी है जहां दिल्ली से सीधी उडानें हैं। हरिद्वार या ऋषिकेश से आपको चमोली जिला मुख्यालय गोपेश्वर का रुख करना होगा जो ऋषिकेश से करीब 212 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ऋषिकेश से गोपेश्वर पहुंचने के लिये आपको बस या टैक्सी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। एक रात गोपेश्वर में रुकने के बाद अगले दिन आप अपनी यात्रा शुरू कर सकते हैं।

कहां ठहरें

गोपेश्वर में टूरिस्ट रेस्ट हाउस, पीडब्ल्यूडी बंगले के अलावा छोटे होटल और लॉज आसानी से मिल जाते हैं। गोपेश्वर से करीब पांच किलोमीटर ऊपर सगर नामक स्थान तक आप बस की सवारी कर सकते हैं। इसके बाद रुद्रनाथ पहुंचने के लिये यात्रियों को करीब 22 किलोमीटर की खडी चढाई चढनी होती है। यही चढाई श्रद्धालुओं की असली परीक्षा और ट्रैकिंग के शौकीनों के लिये चुनौती होती है। रास्ता पूरा जंगल का है लिहाजा यात्रियों को अपने साथ पूरा इंतजाम करके चलना होता है। यानी खाने-पीने की चीज से लेकर गर्म कपडे हरदम साथ हों। बारिश व हवा से बचाव के लिये बरसाती पास होनी चाहिये क्योंकि मौसम के मिजाज का यहां कुछ पता नहीं चलता। पैदल रास्ते में तो पालसी मिल जाते हैं लेकिन रुद्रनाथ में रुकना हो तो इंतजाम के बारे में सोचकर चलें।

कब जायें

यूं तो मई के महीने में जब रुद्रनाथ के कपाट खुलते हैं तभी से यहां की यात्रा शुरू हो जाती है लेकिन अगस्त सितम्बर के महीने में यहां खिले फूलों से लकदक घाटियां लोगों का मन मोह लेती हैं। ये महीने ट्रैकिंग के शौकीनों के लिये सबसे उपयुक्त हैं। गोपेश्वर में आपको स्थानीय गाइड और पोर्टर आसानी से मिल जाते हैं। पोर्टर आप न भी लेना चाहें लेकिन यदि पहली बार जा रहे हैं तो गाइड जरूर साथ रखें क्योंकि यात्रा मार्ग पर यात्रियों के मार्गदर्शन के लिये कोई साइन बोर्ड या चिन्ह नहीं है। पहाडी रास्तों में भटकने का डर रहता है। एक बार आप भटक जायें तो सही रास्ते पर आना बिना मदद के मुश्किल हो जाता है।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 27 जुलाई 2008 को प्रकाशित हुआ था।

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