गुरुवार, जून 23, 2011

ओरछा- बुन्देलखण्ड की अयोध्या

लेख: कौशलेंद्र प्रताप सिंह

ओरछा को दूसरी अयोध्या के रूप में मान्यता प्राप्त है। यहां पर रामराजा अपने बालरूप में विराजमान हैं। यह जनश्रुति है कि श्रीराम दिन में यहां तो रात्रि में अयोध्या विश्राम करते हैं। शयन आरती के पश्चात उनकी ज्योति हनुमानजी को सौंपी जाती है, जो रात्रि विश्राम के लिये उन्हें अयोध्या ले जाते हैं-

सर्व व्यापक राम के दो निवास हैं खास, दिवस ओरछा रहत हैं, शयन अयोध्या वास।

शास्त्रों में वर्णित है कि आदि मनु-सतरूपा ने हजारों वर्षों तक शेषशायी विष्णु को बालरूप में प्राप्त करने के लिये तपस्या की। विष्णु ने उन्हें प्रसन्न होकर आशीष दिया और त्रेता में राम, द्वापर में कृष्ण और कलियुग में ओरछा के रामराजा के रूप में अवतार लिया। इस प्रकार मधुकर शाह और उनकी पत्नी गणेश कुंवरि साक्षात दशरथ और कौशल्या के अवतार थे। त्रेता में दशरथ अपने पुत्र का राज्याभिषेक न कर सके थे, उनकी यह इच्छा भी कलियुग में पूर्ण हुई।

रामराजा के अयोध्या से ओरछा आने की एक मनोहारी कथा है। एक दिन ओरछा नरेश मधुकरशाह ने अपनी पत्नी गणेशकुंवरि से कृष्ण उपासना के इरादे से वृंदावन चलने को कहा। लेकिन रानी रामभक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। क्रोध में आकर राजा ने उनसे यह कहा कि तुम इतनी रामभक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ। रानी ने अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरम्भ की। इन्हीं दिनों सन्त शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधनारत थे। सन्त से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना दृढ से दृढतर होती गई। लेकिन रानी को कई महीनों तक रामराजा के दर्शन नहीं हुए। अंततः वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने सरयू की मझधार में कूद पडी। वही जल की अतल गहराईयों में उन्हें रामराजा के दर्शन हुए। रानी ने उन्हें अपना मंतव्य बताया। रामराजा ने ओरछा चलना स्वीकार किया किन्तु उन्होंने तीन शर्तें रखीं- पहली, यह यात्रा पैदल होगी, दूसरी- यात्रा केवल पुष्प नक्षत्र में होगी, तीसरी- रामराजा की मूर्ति जिस जगह रखी जायेगी वहां से पुनः नहीं उठेगी।

रानी ने राजा को सन्देश भेजा कि वो रामराजा को लेकर ओरछा आ रही हैं। राजा मधुकरशाह ने रामराजा के विग्रह को स्थापित करने के लिये करोडों की लागत से चतुर्भुज मन्दिर का निर्माण कराया। जब रानी ओरछा पहुंची तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल में रख दी। यह निश्चित हुआ कि शुभ मुहूर्त में मूर्ति को चतुर्भुज मन्दिर में रखकर इसकी प्राण प्रतिष्ठा की जायेगी। लेकिन राम के इस विग्रह ने चतुर्भुज जाने से मना कर दिया। कहते हैं कि राम यहां बालरूप में आये और अपनी मां का महल छोडकर वो मन्दिर में कैसे जा सकते थे। राम आज भी इसी महल में विराजमान हैं और उनके लिये बना करोडों का चतुर्भुज मन्दिर आज भी वीरान पडा है। यह मन्दिर आज भी मूर्ति विहीन है।

यह भी एक संयोग है कि जिस संवत 1631 को रामराजा का ओरछा में आगमन हुआ, उसी दिन रामचरितमानस का लेखन भी पूर्ण हुआ। जो मूर्ति ओरछा में विद्यमान है, उसके बारे में बताया जाता है कि जब राम वनवास जा रहे थे तो उन्होंने अपनी एक बाल मूर्ति मां कौशल्या को दी थी। मां कौशल्या उसी को बालभोग लगाया करती थी। जब राम अयोध्या लौटे तो कौशल्या ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी। यही मूर्ति गणेशकुंवरि को सरयू की मझधार में मिली थी।

यह विश्व का अकेला मन्दिर है जहां राम की पूजा राजा के रूप में होती है और उन्हें सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात सलामी दी जाती है। यहां राम ओरछाधीश के रूप में मान्य हैं। रामराजा मन्दिर के चारों तरफ हनुमानजी के मन्दिर हैं। छडदारी हनुमान, बजरिया के हनुमान, लंका हनुमान के मन्दिर एक सुरक्षा चक्र के रूप में चारों तरफ हैं। ओरछा की अन्य बहुमूल्य धरोहरों में लक्ष्मी मन्दिर, पंचमुखी महादेव, राधिका बिहारी मन्दिर, राजामहल, रायप्रवीण महल, हरदौल की बैठक, हरदौल की समाधि, जहांगीर महल और उसकी चित्रकारी प्रमुख है।

ओरछा झांसी से मात्र 15 किलोमीटर की दूरी पर है। झांसी देश की प्रमुख रेलवे लाइनों से जुडा है। पर्यटकों के लिये झांसी और ओरछा में शानदार आवासगृह बने हैं।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 28 दिसम्बर 2008 को प्रकाशित हुआ था।


आप भी अपने यात्रा वृत्तान्त और पत्र-पत्रिकाओं से यात्रा लेख भेज सकते हैं। भेजने के लिये neerajjaatji@gmail.com का इस्तेमाल करें। नियम व शर्तों के लिये यहां क्लिक करें

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें