बुधवार, जून 01, 2011

ब्रज की होली- लट्ठ कोडे पडें दनादन

बरसाने की लट्ठमार होली के बारे में तो हम सभी ने बहुत सुना है लेकिन कान्हा की नगरी मथुरा में हर दिशा में होली का रंग अनूठा है। होली पर ब्रज के रंगों में सराबोर कर रहे हैं पंकज कुलश्रेष्ठ:

रंगों का त्यौहार होली यों तो पूरे देश में उत्साह से मनाया जाता है लेकिन कान्हा की नगरी मथुरा में इसका अंदाज ही कुछ अलग है। होली के हुरियारों पर कहीं डंडों की मार पडती है तो कहीं कोडों से पीटा जाता है। गुलाल और रंगों के साथ ही कीचड के थपेडे हुरियारों को झेलने पडते हैं। लेकिन इस मार में ही अजब सा प्यार है। यहीं कारण है कि बृज की होली का खुमार पूरे देश में चढता है और हर साल लाखों लोग इस त्यौहार को मनाने यहां आते हैं।

होली के त्यौहार की शुरूआत मन्दिरों में बसन्त पंचमी से ही हो जाती है। मन्दिरों में भगवान कृष्ण को गुलाल लगाने के बाद रोजाना भक्त होली खेलते हैं। यह जोश फाल्गुन की नवमी तक पूरे चरम पर पहुंच जाता है। इसी दिन विश्व प्रसिद्ध बरसाने की होली मनाई जाती है। यहां बरसाने की हुरियारिनों से होली खेलने नंदगांव के हुरियारे आते हैं। हुरियारिन जहां डण्डे हाथों में लेकर तैयार रहती हैं वहीं हुरियारे हाथ में ढाल लिये रहते हैं। गुलाल की बौछार के बीच जब लाठियों की मार पडती है तो अच्छे-अच्छे खिलाडी भी दुम दबाकर भागते नजर आते हैं। ढाल से बचते बचाते तमाम हुरियारे लाठी खा भी जाते हैं।

शाम को ये हुरियारे श्रीजी मन्दिर पहुंचते हैं और यहां राधारानी के दर्शन के बाद मार खाने को तैयार हो जाते हैं। मन्दिर से रंगीली गली तक लट्ठमार होली का दृश्य देखने के लिये दूर-दूर से पर्यटक हर साल बरसाने पहुंचते हैं। यहां लट्ठमार होली पर ही ढोल नगाडों के साथ समाज गायन भी चलता है। इसके साथ ही समाज गायन ब्रज के लगभग सभी मन्दिरों में शुरू हो जाता है।

नंदगांव के हुरियारे जब बरसाने होली खेलने सकते हैं तो बरसाने के हुरियारे क्यों नहीं! बरसाने की होली से ठीक एक दिन बाद नंदगांव में लट्ठमार होली होती है। इस बार बरसाने से हुरियारे जाते हैं तो हुरियारिन होती हैं नंदगांव की। मन्दिर के पास नंद चौक में होली का नजारा ही कुछ और होता है।

फाल्गुन की नवमी से शुरू होने वाला यह जश्न फिर थमने का नाम नहीं लेता। एकादशी से वृन्दावन में होली शुरू होती है। मन्दिरों में गुलाल और रंग बिखेरा जाता है तो सडकों पर गुजरने वाले भी इस रंग में मस्त हो जाते हैं। वृन्दावन का बांके बिहारी मन्दिर हो या कोई और, होली के रंग सभी जगह बिखरते हैं। एकादशी को ही कृष्ण जन्मभूमि पर मथुरा में भी होली होती है। दोपहर दो बजे से यहां पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं फिर लट्ठमार होली। यहां कार्यक्रम के दौरान भी फूलों की होली लोगों को महका देती है। मथुरा में विश्राम घाट के नजदीक द्वारिकाधीश मन्दिर पर यों तो रोजाना होली खेली जाती है पर यहां का असली आकर्षण एकादशी की कुंज होली है। इस दिन मन्दिर में पेडों की डंडियों से कुंज बनाकर बीच में पानी के फव्वारे लगाये जाते हैं। इन कुंज और फव्वारों के साथ ही होली के रंग समूचे मन्दिर में बिखर जाते हैं।

इसके साथ ही शुरू हो जाता है पूरे मथुरा में हुरंगा। हुरंगे की बात चले और बलदेव का जिक्र आये- यह मुमकिन नहीं। जब समूचा देश होली का रंग खेलकर खुमारी उतार रहा होता है तो बलदेव के युवक कोडों की मार झेलते हैं। अरे, इन्हें कोई सजा नहीं मिलती, यह तो मस्ती है। होली के अगले दिन दौज पर होता है बलदेव का हुरंगा। यह हुरंगा होता है दाऊजी मन्दिर परिसर में। यहां महिलायें होली खेलने वाले युवकों के कपडे फाडकर उन्हीं से कोडे बनाती हैं। इन कोडों से फिर युवकों की पिटाई की जाती है। युवक अपने बचाव के लिये टेसू के रंग महिलाओं पर फेंकते चलते हैं। हुरंगा गोकुल, गोवर्धन, महावन में भी होता है। हालांकि इन स्थानों पर पर्यटक अभी ज्यादा नहीं आते हैं लेकिन इनका अंदाज भी अलग है। गोकुल के हुरंगे में हुरियारों को डंडी की मार पडती है तो लोहवन और बरारी में तीज पर हुरंगा होता है। इन सभी स्थानों पर कीचड की होरी गांवों में खेली जाती है।

यह लेख दैनिक जागरण के यात्रा परिशिष्ट में 26 फरवरी 2006 को प्रकाशित हुआ था।


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