भारत में सूर्य की आराधना सदियों से होती रही है लेकिन यह अलग बात है कि कोणार्क का सूर्य मन्दिर भारत का इकलौता सूर्य मन्दिर है, जो पूरी दुनिया में अपनी भव्यता और बनावट के लिये जाना जाता है। यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। कोणार्क में बनी इस भव्य कृति को महज देखकर समझना कठिन है कि यह कैसे बनी होगी। इस मन्दिर के पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया है कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोडों का पता न चले।
ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 65 किलोमीटर दूर यह मन्दिर सूर्य देव के रथ के रूप में विद्यमान है। माना जाता है कि गंग वंश के राजा नृसिंहदेव ने इसका निर्माण 1236-1264 ई. पू. में किया था। बलुआ पत्थर और काले ग्रेनाइट पत्थर से बने इस भव्य मन्दिर स्थल को 12 जोडी चक्रों वाले, सात घोडों से खींचे जाते सूर्यदेव के रथ के रूप में बनाया गया है। हालांकि अब इनमें से सिर्फ एक घोडा ही बचा है। कहा जाता है कि इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 सालों तक लगातार काम किया था। मन्दिर अपनी कामुक मुद्राओं वाली शिल्पाकृतियों के लिये भी प्रसिद्ध है। मुख्य मन्दिर तीन मण्डपों में बना है, जिसमें से दो मण्डप ढह चुके हैं। तीसरे मण्डप में मूर्ति थी, जिसे अंग्रेजों ने रेत और पत्थर से भरवाकर सभी द्वारों को स्थायी रूप से बन्द करवा दिया था।
मन्दिर के प्रवेश द्वार पर नट मन्दिर है। मूल मन्दिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं- उदित सूर्य, मध्याह्न सूर्य और अस्त सूर्य। इसके प्रवेश द्वार पर दो सिंह हाथियों पर आक्रमण होते हुए रक्षा में तत्पर दिखाए गये है। दोनों हाथी एक-एक मानव की मूर्ति पर स्थापित हैं। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनी हैं। मन्दिर के दक्षिण भाग में दो सुसज्जित घोडे बने हुए हैं। पूरे मन्दिर में जहां-तहां फूल-बेल और ज्यामितीय नमूनों की भी नक्काशी की गई है, वहीं इनके साथ ही मानव, देव, गंधर्व, किन्नर आदि की आकृतियां भी ऐंद्रिक मुद्राओं में दर्शाई गई हैं।
माना जाता है कि वास्तु दोष होने के कारण यह मन्दिर 800 सालों में ही ध्वस्त हो गया। वास्तुशास्त्री के मुताबिक, मन्दिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व दिशा के साथ आग्नेय और ईशान कोण खण्डित हो गया। पूर्व से देखने पर पता लगता है कि ईशान एवं आग्नेय कोणों को काटकर यह वायव्य और नैऋत्य कोणों की ओर बढ गया है। प्रधान मन्दिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्य शाला है, जो पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होती है। नैऋत्य कोण में छायादेवी के मन्दिर की नींव प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋत्य भाग में मायादेवी का मन्दिर और नीचा है। आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं है। दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार हैं, जिस कारण मन्दिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई है। 16वीं सदी के मध्य में मुगल आक्रमणकारी कालापहाड ने इसे काफी नुकसान पहुंचाया और कई मूर्तियों को खण्डित किया, जिसके कारण मन्दिर का परित्याग कर दिया गया। मुगलकाल में इस मन्दिर में पूजा-अर्चना बन्द हो गई।
कोणार्क यात्रा का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च तक सर्दियों के दौरान है। पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये यहां कोणार्क नृत्य महोत्सव आयोजित किया जाता है। पुरी और भुवनेश्वर से कोणार्क आसानी से जाया जा सकता है और दोनों शहर वायुमार्ग और रेलवे द्वारा जुडे हुए हैं।
लेख: विनीत (राष्ट्रीय सहारा में 30 अक्टूबर 2011 को प्रकाशित)
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