सोमवार, नवंबर 07, 2011

भंगाल घाटी- इक्के दुक्के पर्यटक ही जहां का लुत्फ उठा पाते हैं

हिमाचल की कांगडा घाटी अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिये ही नहीं मशहूर है, अपितु हिमशिखरों पर बने देवालयों, भोले-भाले लोगों, अनूठी धार्मिक परम्पराओं, रीतिरिवाजों और अनमोल प्राकृतिक सम्पदा के लिये भी विख्यात है। यहां एक बार आया सैलानी बार-बार आने को लालायित रहता है। वैसे तो इस घाटी में ऐसे अनेक स्थल हैं जो सैलानियों को मोह लेते हैं लेकिन जहां तक भंगाल घाटी का सवाल है, यहां का सौन्दर्य दैवीय है और यहां एक बार की गई यात्रा की स्मृतियां उम्र भर के लिये मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं।

भंगाल कांगडा जिले की सबसे दुर्गम घाटी है और सरकारी कर्मचारी इसे कालापानी तक कह देते हैं क्योंकि यहां अधिकतर क्षेत्रों में न तो सडक मार्ग हैं और न ही जीवन की भौतिक सुविधाएं। वैसे भी बर्फबारी के कारण साल में पांच महीने इस घाटी का सम्पर्क शेष दुनिया से कटा रहता है। घाटी में यातायात के साधन नाममात्र के हैं, अतः सैलानियों का सैलाब तो यहां नहीं उमडता लेकिन रोमांच प्रेमी पर्यटक, घुमक्कड और पर्वतारोहण के शौकीन यहां अक्सर दस्तक देते रहते हैं।

पोलिंग, रूलिंग, नलौता, राजगुंदा, कुकडगुंदा, बडाग्राम और प्लाचक इस घाटी के दर्शनीय स्थल हैं। आकाश का सीना नापते हिमशिखर, झर-झर करते झरने, शीतल हवा के झौंके, तोष, कैल और रई के गगनचुम्बी वृक्ष बरबस ही मन मोह लेते हैं। सभी स्थल छह से दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हैं और यहां का अस्सी फीसदी क्षेत्र जंगल से घिरा है। इन जंगलों से गुजरते हुए भेड बकरियों के झुण्ड के साथ गुजरते गडरिये भी मिलेंगे और दूर कहीं से उठती बांसुरी की मधुर तान भी सुनने को मिलेगी। जडी बूटियां और लकडी चुनने आई हिमबालाओं के लोकगीतों के बोल भी पल भर के लिये ठिठकने को मजबूर कर देंगे।

इस घाटी के विवाह संस्कार निराले हैं। पचास फीसदी विवाह प्रेम-विवाह होते हैं जिन्हे ‘झंझराडा’ कहा जाता है। इस प्रथा के अन्तर्गत प्रेमी अपनी प्रेमिका को घर ले जाता है और घरवालों को इस शादी के लिये मान्यता प्रदान करनी पडती है। तयशुदा शादियां भी दूर-दराज नहीं होतीं अपितु साथ लगते गांवों में ही तय हो जाती हैं। आमतौर पर लडके या लडकी की शादी इक्कीस वर्ष की उम्र तक हो जाती है। बिरले ही ऐसे युवक-युवतियां मिलेंगे जो पच्चीस वर्ष के हो जाने पर कुंवारे बैठे हों।

‘झंझराडा’ के अलावा विवाह की एक प्रथा ‘बट्टा-सट्टा’ नाम से है। इसके अन्तर्गत विवाह में लडका पत्नी प्राप्त करने के लिये अपनी चचेरी या फुफेरी बहन को अपनी पत्नी के भाई से ब्याहता है। एक अन्य प्रथा ‘चोली-डोरी’ संस्कार है, जिसके अन्तर्गत अपने पति की मृत्यु के बाद विधवा स्त्री अपने जेठ या देवर (अगर वह कुंवारा हो) से विवाह कर लेती है। एक अन्य परम्परा ‘बरमाना विवाह’ है। ऐसे विवाह में कन्या का पिता लडके से या फिर उसके मां-बाप से कुछ रुपये ले लेता है और निश्चित राशि मिलने पर अपनी कन्या उस घर में ब्याह देता है।

देवी-देवताओं की इस समाज में बहुत मान्यता है और हर महत्वपूर्ण काम यहां तक कि फसल की बिजाई भी देवता की अनुमति से होती है। ‘अजय पाल’ और ‘गोहरी’ इस घाटी के प्रमुख ग्रामीण देवता हैं। ये देवता प्रतीकात्मक रूप से मन्दिरों में विराजमान हैं और अपने चेलों, जिन्हें गुर कहा जाता है, के माध्यम से जनता को आदेश सुनाते हैं। गुर को देवता का प्रवक्ता माना जाता है और उसकी हर बात को गांववासी सिर मत्थे लेते हैं। उपरोक्त देवताओं के अलावा ‘कैलू’ देवता के प्रति यहां के लोगों की अगाध आस्था है। लेकिन यह देवता आदेश नहीं सुनाता। वास्तव में कैलू शब्द कुल अर्थात वंश का अपभ्रंश है यानी कुल का देवता। इस देवता से सम्बन्धित एक विचित्र बात यह है कि केवल स्त्रियां ही इस देवता की पूजा-अर्चना कर सकती हैं। पुरुषों का देवता के स्थान पर प्रवेश वर्जित है। कैलू देवता की आराधना भी केवल शादीशुदा स्त्रियां ही करती हैं। स्थानीय परम्पराओं के अनुसार जब युवती की शादी हो जाती है, तो उस दिन से वह कैलू देवता की पूजा अर्चना शुरू कर देती है। अगर शादी के बाद लडकी कैलू देवता को अपने ससुराल भी ले जाना चाहे तो उस पर कोई रोक नहीं है। कैलू देवता की स्थापना तब ससुराल पक्ष के घर से कुछ ही दूरी पर कर दी जाती है। यदि ऐसा न हो पाये तो देवता की आराधना के लिये लडकी को अपने मायके आना पडता है।

घाटी के गांवों में किसी के यहां जन्म और मौत पर लोग खेतों पर काम नहीं करते। अगर कोई ऐसा करता है तो उसे जुर्माने के रूप में बकरे या भेडू की बलि देवता को चढानी पडती है। जन्म या मृत्यु की सूचना देने के लिये गांव का एक व्यक्ति पूरे गांव में आवाज लगाता है- जूठ, जूठ। गांववासी इसका अर्थ समझ जाते हैं। घाटी के 95 फीसदी लोग मांसाहारी हैं और शराब के भी शौकीन होते हैं। हर त्यौहार को ये बडे चाव से मनाते हैं और लोकनृत्यों में भी पूरी उमंग से हिस्सा लेते हैं।

इस घाटी के भ्रमण के लिये अप्रैल से मई तक और फिर सितम्बर से नवम्बर तक का मौसम सर्वाधिक उपयुक्त है। जून-जुलाई में भारी वर्षा से भूस्खलन का खतरा हर पल बना रहता है। और दिसम्बर में बर्फबारी से इस घाटी का सम्पर्क शेष दुनिया से कट जाता है। कई बार तो नवम्बर माह के शुरू में ही बर्फबारी से सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं। यहां के रमणीय स्थलों का अस्सी फीसदी सफर पैदल ही तय करना पडता है। अतः केवल रोमांच प्रेमी, घुमक्कड व पर्वतारोही ही इस घाटी के अछूते सौन्दर्य से साक्षात्कार कर सकते हैं।

लेख: गुरमीत बेदी

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस आलेख में कई ऐसी जानकारियां हैं जो उस स्थल की यात्रा के समय काम आएंगी।

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