शुक्रवार, नवंबर 04, 2011

भंगाल- कुदरत की गोद में

धौलाधार की हिममण्डित पर्वत श्रंखलाओं से घिरे कांगडा जिले का एक सुरम्य स्थल है- भंगाल। समुद्र तल से आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित रावी नदी के किनारे बसा भंगाल धरती पर प्रकृति का स्वर्ग कहा जा सकता है। तोष, देवदार और कैल के गगनचुम्बी पेडों से सुशोभित इस स्थल में प्रकृति झूमती, गाती, इठलाती प्रतीत होती है।

भंगाल चूंकि सडक मार्ग से नहीं जुडा है, अतः घुमक्कड और रोमांच प्रेमी सैलानी ही यहां के नैसर्गिक सौन्दर्य को आत्मसात कर सकते हैं। इस दुर्गम स्थल का राहुल सांकृत्यायन ने भी भ्रमण किया था। अपने संस्मरणों में उन्होंने लिखा है- ‘यहां चार-पांच दर्जन कनैत लोगों के घर हैं। जाडों में हिमपुंज यहां गिरते रहते हैं, जिसके कारण कितने ही घर बह जाते हैं। उपत्यका की तीन दिशाओं में रावी के करीब करीब किनारे कितने ही शिखर हैं, जिनकी ऊंचाईयां 17000 फीट से 20000 फीट है। निचले भागों में कितने ही बहुत सुन्दर देवदार के जंगल हैं और ऊपर कितनी ही हिमानियां हैं।’ भंगाल तालुके का आधा भाग छोटा भंगाल कहा जाता है जो धौलाधार के दक्षिण की ओर फेंकी 10000 फीट ऊंची एक पर्वत श्रेणी द्वारा दो हिस्सों में बांट दी जाती है। यह पर्वत श्रेणी बीड और कोमन्द के ऊपर से फताकाल होती मण्डी की ओर जाती है। इस पर्वत श्रेणी के पूर्व के भूभाग को कोठीसोवार अथवा अन्दरला और बाहिरला बाढ गढ कहते हैं। इसी में अहल नदी का स्रोत है। इस इलाके में कनैत आदि लोगों के 18-19 गांव हैं जो उपत्यका के निचले भाग में बिखरे हुए हैं। इसकी ढलानें बहुत तीखी हैं।

भंगाल की भौगोलिक स्थिति भी बडी दिलचस्प है। इसके उत्तर में लाहौल-स्पीति, उत्तर-पश्चिम में चम्बा और उत्तर पूर्व में कुल्लू जिला स्थित है। यहां तक पहुंचने के भी तीन रास्ते हैं। अगर कांगडा जिले के बीड से जाना हो तो 71 किलोमीटर पैदल चलना पडता है। रास्ते में 15546 फीट ऊंचा थमसर दर्रा भी नापना पडता है। दूसरा रास्ता चम्बा होते हुए है और 45 किलोमीटर का पैदल सफर है। तीसरा रास्ता कुल्लू जिले के पतलीकुहल से है। रास्ते में कालीहनी दर्रा लांघना पडता है। इतना कठिन और दुर्गम सफर तय करने के बाद जब सैलानी भंगाल पहुंचता है तो उसे प्रकृति का एक बिल्कुल नया और अछूता रूप दिखता है। सारी थकावट पल भर में छूमन्तर हो जाती है। ढलानों पर बने यहां के लोगों के रैन-बसेरे और जडी बूटियों की महक सैलानी को किसी स्वप्नलोक में ले जाती है।

भंगाल दो भागों में बंटा है। ऊपर के क्षेत्र को स्थानीय लोग ‘ग्रां’ कहते हैं और नीचे बसा गांव ‘फाली’ कहलाता है। ‘ग्रां’ की प्राचीनता निर्विवाद है। फाली बाद में आबाद हुआ है। क्षेत्र के वयोवृद्ध पूर्व प्रधान दानू राम बताते हैं- भंगाल का पूरा क्षेत्र 204 वर्गमील है। यहां के सभी वाशिंदे कनैत राजपूत हैं। अलग-अलग आठ खानदानों के ये राजपूत अलग-अलग स्थानों से यहां आकर बसे हैं। भंगालिये राजपूत सबसे पहले बंगाल से यहां आकर बसे। उसके बाद लाहौर से हुदिये राजपूत आये।

भंगाल में रावी नदी के साथ कालीहाण की सहायक नदी मिलती है। इस नदी का उदगम ‘रई गाहर’ नामक स्थान से हुआ है और रावी नदी का नाद दूसरी नदियों से अधिक है। रई गाहर को सात बहनों का निवास स्थान माना जाता है। भंगाल क्षेत्र में इस बारे में एक प्राचीन गाथा प्रचलित है। इसके अनुसार रई गाहर में एक प्राचीन दुर्ग था, जिसे हनुमान का किला कहा जाता था। इस किले में ‘सत भाजणी’ (सात भगनियां) रहा करती थीं। इनमें आपस में बहुत स्नेह था। किसी अनकहे कारण या घटनावश एक रात छह बडी बहनें छोटी बहन को सोया छोड रई गाहर से दूर विभिन्न स्थानों को चली गईं। बेचारी छोटी बहन जब जागी, स्वयं को अकेला पाकर रोने लगी। उसके नेत्रों से इतने आंसू बहे कि उन्होंने नदी का रूप धारण कर लिया और स्वयं रावी नदी बन गई। अपने उदगम क्षेत्र में काफी दूर तक रावी का बहाव बहुत तेज, भयंकर आवाज करता है। यह आवाज उसके करुण क्रंदन की है। उसकी बहनों के कान में भी यह घोर ध्वनि पहुंची। वे जान गईं कि उनकी लाडली बहन निराश, हताश, असहाय पडी रो रही हैं। वे भी रो पडी और रोते रोते नदियां बन गईं। इस प्रकार वे सात बहने, सात भजणियां, विभिन्न उदगमों से प्रवाहित होने लगीं। उनका नाम पडा- गंगा, यमुना, सरस्वती, सतलुज, व्यास और चिनाब।

रावी भले ही आज देश की अन्य नदियों की भीड-भाड में खोई-खोई लगे, किन्तु वैदिक काल में इस नदी ने समाज तथा राष्ट्र के जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऋग्वेद में रावी, जिसे तब ‘परुष्णी’ कहा जाता था, काफी चर्चित थी। इसकी गणना सप्त सिन्धु अथवा सप्त नदों में होती थी। शायद यही वैदिक कालीन विश्वास की ही प्रतिच्छाया है कि भंगाल के लोग सतभाजणी को देवी रूप में पूजते हैं। इसके अलावा लोग यहां अजयपाल, केलंग वीर, शिवशक्ति, इलाके वाली भगवती, डंगे वाली भगवती और मराली देवी के उपासक हैं। गांव में इन सभी देवी-देवताओं के मन्दिर हैं। गांववासी इन देवताओं की रहनुमाई में ही सारा कामकाज करते हैं। यहां तक फसल की बिजाई व कटाई भी।

सर्दियों के दिनों में भंगाल कई-कई फीट बर्फ से ढक जाता है। इन दिनों यहां के अधिकतर वाशिंदे बीड और बैजनाथ क्षेत्र में आ बसते हैं। कुछ लोग चम्बा चले जाते हैं। यहां इन्होंने अपने घर बनाये हैं और कृषि योग्य भूमि भी खरीद रखी है। भंगाल पंचायत के प्रधान श्री प्रेमदास ने तो बीड में बहुत खूबसूरत घर डाला है और जीप रखी है। गर्मियां वह भंगाल में ही गुजारते हैं।

भंगाल के लोगों का पुश्तैनी व्यवसाय भेड बकरी पालन है और जडी बूटियों की भी इन्हें खासी पहचान है। भंगाल में आजादी के इतने सालों बाद भी बिजली नहीं पहुंची लेकिन आयुर्वेदिक औषधालय, गार्डखाना, पटवारखाना, प्राइमरी स्कूल, आंगनबाडी केन्द्र और राशन का डिपो जैसी सुविधाएं लोगों को मुहैया हैं। यहां किसी तरह अगर सडक बन जाये तो जालसू दर्रे के रास्ते भंगाल तक साल में सात-आठ महीने आवागमन बना रह सकता है।

भंगाल के लोगों की वेशभूषा भी निराली है और आगन्तुक को सहज ही आकर्षित करती है। पुरुष ऊनी चोला, कमर पर काला डोरा और सिर पर पगडी पहनते हैं। महिलाएं गद्दिनों की तरह चादरु ओढती हैं और ‘लुआंचडी’ भी लगाती हैं। लुआंचडी यहां की महिलाओं के परम्परागत परिधान का नाम है।

लेख: इकबाल

सन्दीप पंवार के सौजन्य से

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