हिमशिखरों के बीच पसरा एक जादुई लोक, रहस्य और रोमांच का अनूठा मेल। कभी कालापानी कहा जाता था इसे लेकिन अब यह धारणा बदल रही है। हिमाचल प्रदेश की दुर्गम, जनजातीय घाटी पांगी में जाने वाले सैलानी जब इस जादुई लोक से लौटते हैं तो यहां बार-बार आकर घूमने का सपना उनकी आंखों में झिलमिलाता दिखता है। पहाड, बर्फ, पेड, जडी बूटियों की महक, सरसराती हवाएं, संकरी चट्टानों से बहती नदियों का नाद, हरियाली घाटियां, चरागाहें ही सैलानी को यहां आने का न्यौता नहीं देती, अपितु यहां की समृद्ध संस्कृति, निराली बोलियां, भोले भाले ग्रामीण, अनूठा पहनावा-खानपान और सबसे बढकर जिन्दादिल मेहमानबाजी सैलानी के मन पर इस खूबसूरती से दर्ज हो जाती है कि वह बार-बार यही लौटना चाहता है।
आज का पर्यटक महानगरों की चकाचौंध संस्कृति और फाइवस्टार होटलों से निकल, एकदम शान्त और अछूते स्थलों में जाना चाहता है। जहां चारों ओर प्रकृति ही प्रकृति बिखरी पडी हो, पुरानी सभ्यताओं के अवशेष हों, वन्य प्राणियों का अस्तित्व हो। पांगी घाटी सैलानियों की उम्मीदों पर खरी उतरती है। लेकिन केवल उन्हीं सैलानियों को यह रास आ सकती है जो निजी वाहन को छोड कर पैदल सैर का रोमांच लेना चाहते हों। साहसिक पर्यटन के शौकीनों के लिये तो सचमुच स्वर्ग है यह घाटी।
पांगी घाटी आठ दर्रों से घिरी है और ये सभी दर्रे तेरह हजार फीट की ऊंचाई से सोलह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हैं। दर्रा साच, दर्रा मध, दर्रा चनैनी, दर्रा द्राटी, दर्रा काली छोह, दर्रा कुगति, दर्रा चोमिया और दर्रा रोहतांग नाम के ये दर्रे हैं। लेकिन पांगी पहुंचने के लिये ये सभी दर्रे नहीं लांघने पडते। क्योंकि ये सब अलग-अलग दिशाओं में स्थित हैं। पांगी पहुंचने के लिये रास्ते भी अलग-अलग हैं। एक रास्ता चम्बा से, दूसरा जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड से और तीसरा लाहौल घाटी के त्रिलोकनाथ से जाता है। इनमें से पांगी के लिये चम्बा और लाहौल से जाने वाले रास्ते तो सर्दियों में भारी बर्फबारी से बन्द हो जाते हैं लेकिन किश्तवाड से होकर जाने वाला रास्ता सर्दियों में भी चालू रहता है। पहले पांगी घाटी पहुंचने के लिये सडक नहीं थी लेकिन अब पांगी घाटी के मुख्यालय किलाड तक सडक पहुंच जाने से यह जादुई लोक सैलानियों के लिये कल्पनालोक नहीं रहा।
चम्बा जिले में करीब चौदह हजार फीट की ऊंचाई पर पांगी घाटी 1650 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। आमतौर पर धारणा है कि यहां पहले बस्तियां नहीं थीं और एक तरह से इसे कालापानी कहा जाता था। जिस तरह अंग्रेज सरकार गुलामी के दौर में आजादी की मशाल उठाने वालों को कालापानी की सजा दे देती थी, उसी तरह दूरवर्ती राज्यों के शासकों द्वारा जिन अपराधियों और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाना होता था, उन्हें यहां धकेल दिया जाता था। कुछ विद्वान यहां के निवासियों को पडोसी क्षेत्रों के उन लोगों का वंशज मानते हैं जो मुस्लिम हमलावरों के बार-बार के हमलों से उकताकर, चैन से अपनी जिन्दगी बिताने के लिये यहां भाग आये थे और यही हिमशिखरों के आगोश में उन्होंने अपने बसेरे बनाकर एक नई दुनिया रच ली। ऐसी मान्यताएं और भी हैं और इनसे जुडी किंवदंतियां भी। अपने नैन-नक्श के हिसाब से यहां के लोग दो श्रेणियों में बंटे हैं। एक वे जिनके नैन-नक्श मंगोलों की तरह हैं और दूसरे वे जिनके नैन-नक्श आर्यों से मिलते जुलते हैं। इन सभी लोगों को पंगवाले कहा जाता है यानी पांगी घाटी के खूबसूरत निवासी। जो प्रकृति के रंग में भी रंगे हैं और मेहमाननवाजी का सलीका भी जानते हैं।
पांगी के लोगों ने अपनी संस्कृति और परम्पराओं को मूल रूप से सहेजकर रखा है। हालांकि आजादी से पहले और बाद में भी मिशनरी पांगी जाते रहे, लोगों को धर्म परिवर्तन की प्रेरणा देते रहे लेकिन भावुक होकर या पैसों के लालच में आकर पंगवालों ने अपनी संस्कृति नहीं छोडी। पांगी के समाज में जागायें (धार्मिक यात्राएं), मेले, सामाजिक त्यौहार और देवीपूजन की परम्पराएं उतना ही महत्व रखती हैं जितनी कि वनस्पतियों के फलने-फूलने में ऋतु चक्र का महत्व है। पांगी में आमतौर पर संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित है और घर के बुजुर्ग की आज्ञा की तौहीन करना पंगवालों की फितरत में नहीं है। ऐसे सामाजिक संस्कार हैं इनके। इन संस्कारों के चलते बुजुर्ग भी स्वयं को उपेक्षित महसूस नहीं करते और न ही उनमें कोई हीन भावना पनपती है। पंगवालों में भ्रातृत्व की भावना इतनी बुलन्द होती है कि एक परिवार का सुख-दुख पूरे गांव का साझा होता है।
पांगी घाटी के विवाह संस्कार भी निराले हैं। एक ही गांव में शादियां नहीं की जाती क्योंकि सामाजिक मर्यादा के तहत गांव के युवक-युवतियां भाई-बहन माने जाते हैं। पहले गांव में अपहरण के जरिये अपनी पसंदीदा युवती से शादी की जा सकती थी। लेकिन अब गांववासी जागरुक हो गये हैं, प्रशासन तो सजग है ही। घाटी की लडकियों को जबरन अपना बनाना अब आसान काम नहीं है। पंगवाला समाज में शादियां तीन चरणों में होती हैं जिन्हें पीलम, फरबी और चरबी के नाम से जाना जाता है। शादी में लडकी की सहमति सर्वोपरि मानी जाती है। पहले चरण में लडके-लडकी के अभिभावक अपने बच्चों की शादी तय करते हैं। दूसरे चरण में लडकी परम्परा और कानून की नजर में लडके की जीवनसंगिनी बन जाती है लेकिन लडके के घर नहीं जाती। उसे इंतजार रहता है शादी के तीसरे चरण यानी ‘चरबी’ संस्कार के सम्पन्न होने का, जब दूल्हा बारात लेकर उसे लिवाने आता है। उस रात समूह भोज और नृत्यों का आयोजन होता है।
नाचगाने के तो पंगवाले बहुत शौकीन हैं। सामूहिक नृत्य को घुरेई कहा जाता है। इसमें मर्द-औरतें एक दूसरे का हाथ पकडकर, कदम से कदम मिलाकर नृत्य करते हैं। नृत्यों के दौरान गीतों की तर्ज भी अपनी ही किस्म की होती है और यह नृत्य बडी धीमी गति से किया जाता है। पांगी घाटी के लोकगीतों में पंगवालों का दुख दर्द, घाटी की खूबसूरती, झरने, नाले और बर्फीली ढलानें सजीव होती दिखती हैं। पंगवालों के सजने संवरने का ढंग भी निराला है। महिलाओं का पहनावा तो देखते ही बनता है। चूडीदार पायजामा और ऊपर रंग-बिरंगी चादर, सिर पर जोजी (एक किस्म का आभूषण), कानों में दर्जनों मुरकियां, नाक के लौंग, बाहों में टोके और बंगे, गले में डोडमाला और तबीत की सजावट... भीड में खडी पंगवालिनें दूर से ही दिख जाती हैं। गजब का हुनर भी है पंगवालिनों के हाथ में। रंग बिरंगे डिजाइनदार ऊनी कम्बल, ऊनी पट्टियां, शालें, गुदमें और चटाईयां बनाने में इनका कोई सानी नहीं।
पांगी घाटी में भोट जनजाति के लोक भी रहते हैं लेकिन इनके ठिकाने जांस्कर पर्वत श्रंखला से सटी ऊंची उपत्यकाओं में हैं। ये लोग बौद्ध मत के अनुयायी हैं और गोम्पाओं में जाकर पूजा अर्चना करते हैं। गोम्पाओं में की गई बौद्ध चित्रकला और काष्ठकला देखते ही बनती है। भोट बस्तियों को यहां बोलचाल की भाषा में ‘भुटोरियां’ कहा जाता है। इन भुटोरियों में सुराल भुटोरी, कुमार भुटोरी, हिल्लोटवान भुटोरी, चस्क भुटोरी, हुडान भुटोरी और परमार भुटोरी प्रमुख हैं। ये तमाम भुटोरियां अपनी प्राकृतिक छटा के लिये मशहूर हैं लेकिन यहां पहुंचने के लिये टांगों में खूब दमखम चाहिये। बिना शारीरिक कसरत के प्रकृति के अनूठे सौन्दर्य से तो साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। पांगी घाटी के कुछ गांवों से जुडा एक अजूबा यह भी है कि यहां खेतों में जौं, गेहूं, फुल्लज और भरेस की फसलें एक साथ लहलहाती देखी जा सकती हैं।
पांगी के दर्शनीय स्थलों में धरवास, मिंघल, साच, किलाड, लुज, पुर्थी, सुराल व हुडान प्रमुख है। यहां ठहरने की व्यवस्था वन विभाग के विश्राम गृहों में हो सकती है। अब तो दूसरंचार सुविधाओं से भी जुड गया है पांगी। किलाड-पठानकोट और किलाड-भुन्तर (कुल्लू) हवाई मार्ग से निर्धारित तिथियों को उडानें भरी जाती हैं। सरकारी कर्मचारियों को यहां जनजातीय क्षेत्र की सुविधाएं प्राप्त हैं। अब अत्यन्त दुर्गम और कालापानी नहीं रहा पांगी। धौलाधार, जांस्करधार और पांगीधार की हिमानी श्रंखलाओं से घिरी पांगी घाटी अब गर्मियों के मौसम में सैलानियों की बाट जोहती दिखती है।
लेख: गुरमीत बेदी
सन्दीप पंवार के सौजन्य से
आपने एक अनूठी जानकारी दी है।
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